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'कांप्रोमाइज' करते रहने का अंजाम

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दीपक असीम

एक फिल्म इस पर भी बननी चाहिए कि हीरोइन बनने की ख्वाहिश रखने वाली तमाम लड़कियों का होता क्या है? कोई मधुर भंडारकर शायद इस पर अलग से एक फिल्म बनाए। यह तो सबका अंदाजा है कि जो लड़कियाँ फिल्मों और टीवी में नहीं खप पातीं, वे धीरे-धीरे जिस्मफरोशी के धंधे में चली जाती हैं। जो टिकी रहती हैं वो भी समझौते करती रहती हैं, जिसे फिल्मी दुनिया में "कांप्रोमाइज" के नाम से जाना जाता है। मधुर भंडारकर की ही फिल्म "कार्पोरेट" में एक रोल पायल रोहतगी का है। फिल्मों में आइटम डांस करने वाली इस लड़की का साइड (या मेन) बिजनेस बड़े लोगों के लिए प्रस्तुत होना है। कई फिल्मों में ये भी बताया गया है कि लड़की को हीरोइन बनाने के नाम पर झाँसा दिया जाता है, फायदा उठाया जाता है। फरहान अख्तर की फिल्म "लक बाय चांस" में नायिका का फायदा एक डायरेक्टर उठाता है और हीरोइन बनने का चांस उसकी बजाय पुरानी हीरोइन की बेटी को मिल जाता है।

जिस्म को कभी-कभार रिश्वत के बतौर इस्तेमाल करना अलग बात है और रोजगार के साधन के की तरह हमेशा इस्तेमाल करना अलग। अभी हैदराबाद में दो तेलुगु अभिनेत्रियाँ जिस्मफरोशी के आरोप में गिरफ्तार हुई हैं। कहने वाले कहते हैं कि मुंबई में भी एजेंट लोग एलबम लिए घूमते हैं। एलबम में फोटो होते हैं नई स्ट्रगलर्स और उन पुरानी हीरोइनों के जिन्हें दो-एक फिल्म मिलीं, फ्लॉप हुईं और धीरे-धीरे उनका बाजार सिमट गया। स्ट्रगलर्स टिके रहने के लिए रसद चाहती हैं और रसद का इंतजाम इस तरह होता है। तीसरे दर्जे की दो-एक फिल्म कर चुकीं पुरानी अभिनेत्रियाँ इसलिए इस धंधे को करती होंगी कि उनके लिए इस चमक-दमक को छोड़कर जाना संभव नहीं होता। वे हीरोइनें फायदे में रहती हैं, जो अपने अच्छे दिनों में किसी एक का दामन थामकर उसकी हो जाती हैं। कुछ शादी कर लेती हैं तो कुछ ऐसे ही साथ रहने लगती हैं। सबसे ज्यादा फायदे में रहती हैं बड़े उद्योगपति से रिश्ता बना लेने वालीं। नाम भी मिलता है, पोजिशन भी और जीवन भर की सुरक्षा भी।

वैसे इन दिनों टीवी पर ही इतना काम है कि औसत प्रतिभा की अभिनेत्री कहीं भी खप सकती है, फिर चाहे उसकी उम्र चाहे जो हो। हर उम्र की महिला के लिए काम मौजूद है। जिस्म फरोशी के धंधे में अब यकीनन वो जाती हैं, जिनकी ख्वाहिशों का उनकी प्रतिभा के साथ कोई मेल नहीं है। एक चौथा क्षेत्र और भी है, जिसकी तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। बहुत थोड़ी सी लड़कियाँ "जूनियर एक्टर" का भी कार्ड बनवा लेती हैं। इन्हें रोल मिलता है घर की बेनाम नौकरानी का, भीड़ का, बाजार से आवाजाही करती महिला या लड़की का, कॉलेज कैंपस में हीरोइन के पड़ोस से गुजर जाने वाली छात्रा का...। कम भीड़ वाले दृश्य अकसर इन्हीं जूनियर आर्टिस्टों से फिल्माए जाते हैं। इन्हें दिहाड़ी के हिसाब से पैसे मिलते हैं। पर इतना पक्का है कि इन्हें जिस्मफरोशी नहीं करनी पड़ती। हालात का रोना मजबूर लोग रोते हैं। वर्ना तो जो भी आदमी करता है, खुद उसका ही चुनाव होता है। छोटे मोटे रोल के लिए डायरेक्टर, असिस्टेंट डायरेक्टर और प्रोड्यूसर के सामने समर्पण कर देने वाली लड़कियाँ जूनियर एक्ट्रेस भी बन सकती हैं। मगर वे अपनी लाइफ स्टाइल में कोई कांप्रोमाइज करना नहीं चाहतीं, फिर चाहे उन्हें इसके लिए कितने ही "कांप्रोमाइज" क्यों न करना पड़ें। यही कांप्रोमाइज अंत में हीरोइन का फोटो किसी दलाल की एलबम में पहुँचा देते हैं और हीरोइन को हवालात में।

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