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ख्वाबों की फेहरिस्त

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अनहद

औरत क्या चाहती है, यही इस फिल्म में बताया गया है और क्या नहीं चाहती यह भी। "मेरे ख्वाबों में जो आए" मधुरिता आनंद की फिल्म है और इसमें एक औरत का नजरिया शामिल है। शादीशुदा, आर्थिक रूप से असुरक्षित औरत ही इस फिल्म की धुरी है। कुछ लोगों को लग सकता है कि यह फिल्म महिलाओं को लंपट होने की सीख देती है, मगर यह सिर्फ इसलिए लगेगा कि पुरुष तो बहुत बार महिलाओं की तारीफ करता है, खूबसूरती के पैमाने निर्धारित करता है, पर इस बार एक महिला का नजरिया सामने आया है कि वह पुरुष में क्या चाहती है। रणदीप हुड्डा को पहचानते हैं आप? एक परफ्यूम के विज्ञापन में सजीला जवान खुशबू लगाकर निकलता है और पूजा के लिए जाने वाली महिला बहककर उसके साथ अंतरंगता के सपने देखने लगती है। वह सजीला जवान रणदीप हुड्डा है सुष्मिता सेन का पुराना ब्वॉयफ्रेंड।

महिलाएँ चाहती हैं कि पुरुष सजीला हो, गठीला हो, पर अंदर से कोमल हो, कलाकार हो, उनकी बातें सुने, उन्हें समझे, उनकी दुनियावी महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने में उनका साथ दे। जाहिर है मर्द के पैमाने भी यही हैं। शरीर का खोल हटा दिया जाए, तो मन के स्तर पर महिला और पुरुषों में कोई अंतर नहीं है। फर्क यह है कि महिलाएँ अब घर के बाहर निकल रही हैं और अच्छे कमाऊ पति से परे भी उनकी महत्वाकांक्षाएँ पंख पसारने लगी हैं। नायिका शादीशुदा है, एक बच्ची की माँ भी है। पति के आगे वह पलक पाँवड़े बिछाती है, पर पति (अरबाज खान) बेवफा है, झगड़ालू और बद्मिजाज है। लिहाजा, नायिका कल्पना में एक लड़के को रच लेती है। यह सपने का पुरुष ही रणदीप हुड्डा है।

महिलाओं के नजरिए से पेश की गई माँगों और विचारों पर कोई ऐतराज नहीं। ऐतराज है फिल्म की खामियों पर। इस माध्यम में अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है, पर सबसे पहले तो वह अभिव्यक्ति दिलचस्प होनी चाहिए। फिर विश्वसनीय लगनी चाहिए। और अंत में दर्शकों के संस्कारों से मेल खाए तो अच्छा है। फिल्म तीनों ही पैमानों पर नाकाम है। रूढ़िवादी दर्शक ऐसी नायिका को क्यों स्वीकार करने लगा, जो शादीशुदा और एक बच्ची की माँ होकर अपने सपने में भी किसी परपुरुष को चाहती है? और याद रहे फिल्म देखते वक्त हमारी तर्कशक्ति सोती है, केवल अचेतन जागता है और अचेतन में हम सब रूढ़िवादी हैं। नारी मुक्ति के हिमायतियों को भी फिल्म देखते वक्त तो नायिका का परपुरुष को चाहना गलत ही लगेगा, फिर बाद में वे भले ही अपने आपको समझा लें। मधुरिता की इस सोच की हिमायत महिलाएँ भी अगर करेंगी, तो शायद छुपकर। अभिनय राइमा सेन का ठीक है। कुछ संवादों में वे सपाट हुई हैं, पर गलती उनकी नहीं संवाद की थी। वे संवाद थे ही बहुत बोर और लंबे। अरबाज खान को रोल उनकी छवि के हिसाब से मिला है। फिल्म अच्छी नहीं है। बोर कम करती है और बेचैनी ज्यादा पैदा करती है।

(नईदुनिया)


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