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वो पुराने पेंटर

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अनहद

पहले फिल्मी दुनिया का अभिन्न अंग हुआ करते थे साइनबोर्ड पेंटर्स। यह साइनबोर्ड पेंटर्स फिल्मों के पोस्टर बनाते थे। वितरक महीनों पहले से साइनबोर्ड पेंटर्स के पास रिलीज होने वाली फिल्म के फोटो लेकर पहुँच जाया करते थे। शौकीन लोग तो पेंटरों की दुकान में जाकर देखा करते थे कि किस फिल्म का पोस्टर तैयार हो रहा है।

इन पेंटरों में कुछ विशेषज्ञ हुआ करते थे। कोई पेंटर वहीदा रहमान का स्पेशलिस्ट होता, तो कोई राजेंद्र कुमार का। कोई राज कपूर का स्पेशलिस्ट होता था तो कोई माला सिन्हा का। जो हीरो या हीरोइन हिट हो जाती, उसका स्पेशलिस्ट बनने की होड़ लग जाया करती थी। इस तरह यह विशेषज्ञता, लोकप्रियता से भी जुड़ जाती थी कि जो सितारा जितना लोकप्रिय उसके विशेषज्ञ भी उतनी ही तादाद में मौजूद रहते थे। साथ ही इन विशेषज्ञ पेंटरों को खासा महत्व मिलने लगता। इनकी हैसियत आम पेंटरों में स्टार जैसी होती थी। कुछ पेंटर तो सिर्फ पोस्टर ही बनाया करते थे। अगर आप उनसे दुकान का साइनबोर्ड बनाने का कहें तो वे आपको हिकारत से देखा करते थे।

कभी-कभी यह भी होता था कि इन पेंटरों के पास काम ज्यादा होने की वजह से वितरक को नौसीखिए पेंटर के पास जाना पड़ता था। ऐसे में जो पोस्टर बनता, वह ऐसा होता था कि अच्छी-भली ट्रेजेडी फिल्म का पोस्टर कॉमेडी फिल्मों का मजा दे देता। पहचान में ही नहीं आता था कि चेहरा खलनायक प्राण का है या उनके दूर के किसी रिश्तेदार का। माला सिन्हा मुहल्ले की शर्मा भाभी जैसी लगतीं और हेलन का चेहरा डरावनी डायन जैसा हो जाता।

एक दिलचस्प तथ्य पोस्टरों से जुड़ा यह भी है कि मशहूर शायर राहत इंदौरी भी किसी जमाने में साइनबोर्ड पेंटिंग किया करते थे। उन्होंने बहुत सी फिल्मों के पोस्टर बनाए। एक जमाना यह भी था कि अँगरेजी फिल्मों के पोस्टर बनाने वाले पेंटरों से वितरक फिल्म का हिन्दी नामकरण भी करवा लिया करता। पेंटर भी फिल्म के फोटो देखकर अच्छे-अच्छे नाम रख दिया करते।

"प्यासा भँवरा और तितलियाँ", "कच्ची कली और तलवारबाज कातिल", "पड़ोसी की बीवी", "कातिल हसीना और हुस्न का प्यासा" जैसे नाम पेंटरों के ही दिमाग की उपज हुआ करते थे।

छपाई की नई तकनीक ने सब मटियामेट कर दिया। सारे पेंटर अपना काम छोड़कर कुछ और कर रहे हैं। कुछ मर-खप गए हैं, कुछ पुराने दिनों को याद करते हुए अपने बचे-खुचे दिन गुजार रहे हैं। दुनिया में ऐसा ही होता है।

(नईदुनिया)


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