फिल्म ‘साँवरिया’ को कमजोर बताने के बाद फिल्मकार संजय लीला भंसाली लाल-पीले हो रहे हैं। उन्होंने फिल्म समीक्षकों, मीडिया और दर्शकों को बुरी तरह फटकार लगाई। उनके सात तर्क हैं : * मीडिया को कोई अधिकार नहीं हैं कि बेवजह वह फिल्म ‘साँवरिया’ की आलोचना करें। * मीडिया के अधिकांश फिल्म पत्रकार या तो बिके हुए हैं या फिर हो सकता है कि ‘ओम शांति ओम’ से जुड़े लोगों द्वारा खरीद लिए गए हैं।* ‘ओम शांति ओम’ फिल्म की ‘साँवरिया’ के साथ तुलना बेमानी है क्योंकि दोनों के कथावस्तु अलग-अलग हैं। * फिल्म ‘साँवरिया’ की थीम क्लासिक है। उसमें क्या परिवर्तन होना चाहिए या नहीं यह कहने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। * बिमल रॉय की ‘देवदास’, राज कपूर की ‘आवारा’ अथवा गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ के अंत बदलने की पैरवी तो कभी किसी ने नहीं की, फिर ‘साँवरिया’ के साथ यह सलूक क्यों?
* ‘ओम शांति ओम’ के साथ ‘साँवरिया’ प्रदर्शित करने का फैसला मेरा अपना है। उससे शाहरुख की लड़ाई का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए।
* पहले सप्ताह में ‘साँवरिया’ को जो ओपनिंग मिली, उससे साबित होता है कि दर्शकों का प्रतिसाद उसे बेहतर मिला है।
संजय लीला भंसाली पहली बार परेशान हैं। दु:खी हैं। अपने पर लगाए गए आरोपों का वे तीखे तेवर के साथ हर पत्र-पत्रिका या चैनल्स पर सीधे-सीधे कड़े शब्दों में जवाब दे रहे हैं। लगता है कि फिल्म प्रचार का युद्ध अब सड़कों पर आ गया है।