फिल्मी दुनिया भले ही मायावी लगे, फरेब लगे, लेकिन बहुत कम ही ऐसे बहादुर होंगे, जो इस मायाजाल के जाल में नहीं फँसते होंगे।
कलाकार रोता है तो लोग रोते हैं और वह हँसता तो सब हँसते हैं। यह इतर बात है कि मनोरंजन के साधन तेजी से अपने पाँव पसार रहे हैं, लेकिन आज भी सिनेमा बहुत बड़े दर्शक वर्ग के मनोरंजन का एकमात्र साधन है। यही वजह है कि बॉलीवुड का यह मायावी संसार केवल सुखांत दृश्यों और चकाचौंध में ही दर्शकों को बाँधकर नहीं रखना चाहता। इसका दायरा बढ़ रहा है और साथ ही बदल रहे हैं, इसकी वास्तविकता के मायने।
अस्सी के दशक में लोग भले ही गोविंदा और मिथुन के ठुमकों पर थिरक उठते होंगे और पल भर को अपना दुःख, दर्द भी भूल जाते होंगे।
नब्बे का दशक प्यार और रूमानियत के नाम रहा। जहाँ परदे पर रोमांटिक गानों और दृश्यों से लोगों के दिलों में भी हिलोरें उठने लगती थीं और कुछ पल को ही सही वे एक ऐसी दुनिया में खो जाते थे, जो सच्चाई से कोसों दूर मगर सुन्दर थी।
धीरे-धीरे लोगों को ये रूमानियत रास नहीं आने लगी। इन विषयों पर बनने वाली फिल्मों की इतनी भरमार हो गई कि लोग रोमांटिक सीन और डायलॉग पर ऊँघने लगे। उन्हें सपनों की नहीं, सच की दुनिया देखनी थी, जिसमें वह 'आम आदमी' साँस ले रहा था। जिसकी जिंदगी में रोमांस के लिए कोई जगह नहीं थी। उनके लिए ये शब्द दिव्यलोक की अप्सराओं की तरह थे, जो स्वर्ग में ही नसीब होती हैं और स्वर्ग भी तो मौत के बाद ही मिलता है।
अब दौर 'ब्लैक' जैसी फिल्मों का है, जहाँ रोशनी नहीं केवल अँधेरा-ही-अँधेरा है। अगर कहीं रोशनी है भी तो उसे छूना और पाना हर किसी के बस की बात नहीं। अब तो 'ब्लैक फ्राइडे' जैसी फिल्में सराही जाने लगी हैं, जिसमें केवल मरीन ड्राइव और जुहू की खूबसूरती और हलचल नहीं, विस्फोट का शोर भी है। उसका धमाका इतना तेज है कि बहरे भी एक बार चौंक उठे।
ये सफर यहीं खत्म नहीं होता, कारवां तो बढ़ता ही जा रहा है, लक्ष्य भी एक ही है.....वास्तविकता को जितना नंगा और क्रूर दिखा सको। उसमें पुचकारने की कोई गुंजाइश न हो, हो तो सच और सिर्फ सच।