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दंगल और सुल्तान में दूर-दूर तक समानता नहीं: नितेश तिवारी

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रूना आशीष

मध्यप्रदेश के इटारसी से निकलकर पहले इंजीनियरिंग करने वाले नितेश तिवारी ने फिल्म 'दंगल' के निर्देशन तक का एक लंबा सफर तय किया है। इस सफर में उन्होंने कई पड़ाव भी देखे। आज भी उन्हें अपने एड की दुनिया के दिन याद हैं। अब उनकी फिल्म 'दंगल' कुछ ही दिनों में लोगों के सामने आ रही है तो वे अपनी फिल्म को लेकर आशा तो लगा रहे हैं और उन्हें यकीन है कि फिल्म तो बेहतरीन बनी है।
 
आपकी फिल्म 'दंगल' के पोस्टर बहुत बार हिन्दी में भी देखे हैं, वर्ना इन दिनों अंग्रेजी पोस्टर ही ज्यादातर दिखाई देते हैं?
अरे मत पूछिए मेरे हाल...! मेरी हिन्दी यहां आकर खराब हो गई है। मैं जब लिखता हूं तो ठीक है वर्ना बोलने में तो बता नहीं सकता हूं। बोलने में तो बंबइया हिन्दी ही निकलकर आ जाती है। यहां तो स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में भी बड़ी दिक्कत हो जाती है। जहां तक पोस्टर की बात है तो ये लोगों की अपनी अपनी सहूलियत की बात है। लोगों को हिन्दी पढ़ना तो आता ही है न? तो ऐसे में जहां फिल्म इंडस्ट्री में अंग्रेजी का बोलबाला ज्यादा है तो डायलॉग कैसे बताए जाते हैं? मैं तो जितने भी लोगों से मिला अब तक, सभी हिन्दी में काम करना पसंद करते हैं। अब बच्चन साहब की बात करूं तो उन्हें अगर अंग्रेजी में संवाद लिखकर दे दिए तो वे लेंगे ही नहीं। उन्हें तो रोमन हिन्दी या फोनेटिक भी नहीं चलती है। जब तक संवाद हिन्दी में हो तो ही वे लेंगे। अगर आमिर की बात करूं तो वे तो एक-एक डायलॉग खुद अपने हाथ से लिखते हैं। शायद उन्हें अपने अक्षरों में ही सहूलियत होती हो। उनको आप प्रिंटेड डायलॉग भी दे दो तो भी वे पहले अपने हाथों से लिखेंगे फिर काम करेंगे। जब बात हरियाणवी की आई तो तब मैंने पहली बार उन्हें फोनेटिक में लिखते देखा। शायद इसका लहजा ऐसे था कि उसे ऐसे पढ़ने में ठीक लगता हो। इसमें भी फोनेटिक भी उन शब्दों के लिखे, जो उन्हें समझ नहीं आ रहे थे। उन शब्दों को उन्होंने मार्क किया और उन्हें फोनेटिक में लिख दिया वर्ना बाकी तो उन्होंने हिन्दी में ही लिखा था।

 
आपके सफर के बारे में कुछ बताइए?
शुरुआत तो मेरी बतौर लेखक ही हुई थी। मैं 'भूतनाथ' के प्री प्रोडक्शन में था। ज्यादा लोग नहीं जानते थे मेरे बारे में। एड इंडस्ट्री छोड़ी नहीं थी मैंने। डिज्नी पिक्चर्स में मेरे दो दोस्त हैं मनीष और दिव्या। वे आए थे मेरे पास और उन्होंने कॉन्सेप्ट सुनाया। 4 या 5 ही लाइंस थी तब, लेकिन वो भी इतनी पॉवरफुल थीं कि मुझे ज्यादा समय नहीं लगा कि उन्हें बोलूं कि चलो अब कुछ विस्तार से बात की जाए। फिर मैं टीम में शामिल हुआ। गीता, बबीता, महावीर सिंहजी और उनकी पत्नी से मिला और धीरे-धीरे कहानी बनती गई। मुझे तो जब मालूम पड़ा कि आमिर ही ये रोल करने वाले हैं तो जाहिर है खुश हुआ। और तो और, महावीर सिंहजी भी जानकर बहुत खुश हुए। मैंने जो स्क्रीन प्ले लिखा था, उससे मैं खुश था तो आमिर साहब भी खुश ही हो गए। लगा नहीं था कि पहली सिटिंग में ही रोल के लिए हां हो जाएगी। तभी उसी समय मुझे लगा कि हमारे सोच और समझ इतनी मेल खाएंगी।
 
आप हमेशा से ही निर्देशक बनना चाहते थे?
नहीं-नहीं, मैं तो इंजीनियरिंग कर रहा था आईआईटी बॉम्बे से। लेकिन हर इंसान की जिंदगी में वो दिन आता है, जब उसे लगता है कि अब उसे वो करना चाहिए जो वो करना चाहता था तो इंजीनियरिंग करने के बाद में लेखन में चला गया। मैं कभी सोच नहीं सकता था कि मैं कभी निर्देशक बनूंगा। आप मुझे एक अनिच्छुक निर्देशक कह सकती हैं। अरे हंसिए मत। जब मैंने और विकास बहल ने 'चिल्लर पार्टी' लिखना शुरू किया था तो बिलकुल नहीं सोचा था कि एक दिन हमें वो निर्देशित करना होगी। हमें वो कहानी अच्छी लगी थी तो हमने सोचा चलो लिख लेते हैं। जब कहानी लिखकर तैयार हो गई तो हमने निर्देशक ढूंढना शुरू किए कि कोई तो बना दे हमारी फिल्म, कोई तैयार ही नहीं हुआ। अब 10 बच्चे हैं, 1 कुत्ता है और कोई स्टार नहीं है। फिर ऐसे में हमारे पास कोई चॉइस ही नहीं थी। तो फिर विकास बोले कि या तो भूल जाते हैं या फिर हम ही निर्देशन कर लेते हैं। मैंने पहले तो सोचा कि भूल जाते हैं और अब कौन अपनी नौकरी छोड़कर फिल्म डायरेक्ट करेगा? फिर सोचा, वैसे भी तो कुछ हो नहीं रहा है तो चलो निर्देशन कर ही लेते हैं। दरअसल, मुझे डर था कि कहीं हमने इतनी सुंदर फिल्म जो लिखी है वो खराब न कर दूं। वैसे भी तो मुझे निर्देशन का कोई आइडिया तो है नहीं, फिर अगर नहीं निर्देशित करता तो भी तो मैं कहानी खराब भी कर रहा था न?

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आपको आपकी इंजीनियरिंग कितना मदद कर गई?
बहुत सारी... जो क्लास में सीखा वो तो बिलकुल नहीं बल्कि वहां की क्रिएटीविटी ज्यादा काम आई। ऐसा बिलकुल मत सोचना कि आईआईटी में सिर्फ पढ़ाकू बच्चे आते हैं बल्कि ये बच्चे खुराफाती भी खूब होते हैं। वहां मैंने 4 साल में सीखा कि बहुत जरूरी है कि लोगों को चौंकाया जाए। एक ही कहानी को आप नए और अलग तरीके से बोल सकते हैं और लोगों को सरप्राइज कर सकते हैं। हमारे हॉस्टल में तो लोगों को चौंकाने का कुछ नया ही तरीका खोजकर रखा जाता था।
 
कोई याद बताना चाहेंगे अपने हॉस्टल लाइफ की?
हमारे हॉस्टल में बहुत नए-नए तरीके से छात्रों को चौंकाया जाता था यानी छात्रों को मालूम है कि आप रूम में जाओगे तो कोई चीज कहीं से गिरेगी। लेकिन क्या गिरेगा, कब गिरेगा और कैसे गिरेगा, बस वही बात चौंकाने वाली होती थी। ये ही तो क्रिएटिविटी होती थी। यानी आप रूम में घुस रहे हैं और दरवाजा खोलने पर आपके रूम में आपको सामने एक सांड मिलेगा वो भी दूसरे माले पर। ये मेरे एक दोस्त के साथ हुआ था। सांड को रोटी और घास का लालच दे-देकर इतनी ऊपर लेकर गए थे।
 
सुना है आपने अपने कॉलेज में प्ले निर्देशित किया था?
हां, मैं कॉलेज में लिखता था और प्ले निर्देशित करता था। एक बार की बात बताता हूं कि हमने एक बार एक प्ले में सिर्फ इसलिए भाग लिया था कहीं कोई निगेटिव मार्किंग न हो। हमारी परीक्षा का समय था और प्ले तैयार नहीं हो पाता था, न ही हम लोगों ने कोई तैयारी की थी। कॉलेज का जो कल्चरल सेक्रेटरी था वो आकर वोला कि कम से कम स्टेज पर जाकर खड़े हो जाना, निगेटिव मार्किंग नहीं होगी। हम भी इसी डर से भाग लेने पहुंच गए। फिर परफॉरमेंस के 2 घंटे पहले लगा कि जब स्टेज पर जाना ही है तो क्यों न कुछ तैयार कर लें। तो हमने जो पढ़ा था क्लास में उसी का एक ड्रामा बना लिया और जाकर स्टेज पर कर दिया। और मजे की बात यह कि हम जीत भी गए तीसरा नंबर। अब नई परेशानी... आईआईटी में कल्चरल शो जो जीतता है उसे अपनी ड्रामा की स्क्रिप्ट को जमा कराना पड़ता है... लेकिन हमारी कोई स्क्रिप्ट हो तो हम जमा करें न... तो फिर ऐसे में हमने कह दिया कि हमारी स्क्रिप्ट बहुत सीक्रेट है, हम दे नहीं सकते। अब अगले साल फिर वही... नया नाटक करना होगा... हमने अपने इसी ड्रामा का पार्ट-2 बनाया... लेकिन इस बार तो हम नहीं जीत सके। वैसे उस नाटक का नाम था 'सेंट बेनेडिक्ट इन सर्च ऑफ रेक्टैंगल।' ये ऐसा तकनीकी नाम या नाटक था जिसे सिर्फ एक आईआईटी वाला ही पसंद कर सकता था।
 
आपने एक बायोपिक बनाई है तो ऐसी फिल्मों में सिनेमैटिक लिबर्टी लेनी होती है?
अगर आप बायोपिक कर रहे हो तो थोड़ी बहुत सिनेमैटिक लिबर्टी लेनी पड़ती है, रीयल लाइफ कभी भी उस हिसाब से नहीं लिखी जा सकती जिस हिसाब से वो घटी हो या उसकी एक बड़ी ही खूबसूरत कमर्शियल फिल्म बनाई जा सकती हो। अगर हम जैसा हुआ हो, वैसा ही बना दें तो वो फिर फिल्म नहीं होगी, वो तो डॉक्यूमेंट्री बन जाएगी और देखने वाले कहेंगे कि कितनी सीख देने वाली फिल्म है। हमें तो मनोरंजन का भी ध्यान रखना होगा ना। अब 'दंगल' के बारे में कहूं तो ये है कि फिल्म में हमने थोड़ा-सा ह्यूमर रखा है, क्योंकि हमें मालूम था कि ये फिल्म कभी भी बहुत संजीदा हो सकती है, जो शायद दर्शक ना भी पसंद करें। फिर कभी-कभी ये भी हो जाता है कि फिल्म में ग्राफ का ध्यान रखते हुए ऐसा लगता है कि ये जो वाकया हुआ है, वो इस समय की बजाय इस समय पर ज्यादा अच्छा लगेगा। तो उतना तो हम बदल ही सकते हैं ना। आप मुख्य किरदार को वहीं रखते हैं, क्योंकि कहानी तो उनकी है। हां, बस उनके आसपास के किरदारों में कुछ ऊपर-नीचे कर सकते हैं ना ताकि वो फ्लैवर की तरह हो सके। साथ ही ये भी ध्यान रखना होता है कि कहीं सारे फ्लैवर रखने के चक्कर में ज्यादा ही ना हो जाए। तो ध्यान रखना होता है कि पकवान में कितने फ्लैवर जरूरी हैं तो उतने ही डालें वर्ना कहीं ज्यादा न हो जाए। एक बार मुझे अमिताभ बच्चन ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि जब कभी आपके आसपास तारीफों के बीच विवाद भी आ जाएं तो मान लीजिए भगवान आप पर नजर का टीका लगा रहा है। 'दंगल' के दौरान आमिर के एक कथन ने बड़ा विवाद खड़ा हो गया था।
 
कुछ लोगों ने कहा था कि वो फिल्म को ही रिलीज होने देंगे या फिर फिल्म का विरोध करते हैं। क्या इस बात ने आज आपको परेशान किया हुआ है?
काफी मिसअंडरस्टुड-सी सिचुएशन थी, जो भी था। मुझे लगता है कि लोगों को ये अहसास भी हो गया था। और एक छोटी-सी चीज है कि अगर आप किसी को बहुत प्यार करते हैं तो आप वापस लौटकर जरूर जाएंगे...। उसमें मनमुटाव वाली गुंजाइश रहती नहीं है और 'दंगल' ट्रेलर आने के बाद कोई गुंजाइश बची भी नहीं है, तो मुझे नहीं लगता है कि अब कोई मायने रखती है।
 
थोड़े समय पहले 'सुल्तान' भी आई थी तो आपको कभी नहीं लगा कि ये दो फिल्में एक जैसी हो सकती हैं?
थोड़े ही समय पहले सलमान खान की 'सुल्तान' भी आई थी, ऐसे में हम दोनों यानी 'सुल्तान' के निर्देशक अली और मैं अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट पर साथ ही काम कर रहे थे। उस समय हमें भी नहीं मालूम था कि 'सुल्तान' पहले आएगी या 'दंगल'। बस ये मालूम था कि अली सलमान के साथ 'सुल्तान' बनाने वाले हैं और मैं आमिर के साथ 'दंगल' बनाने वाला हूं। उस समय अली आकर मुझसे मिले थे कि एक बेसिक आधार पर बात कर लेते हैं कि हम कहीं एक दूसरे को हर्ट न कर बैठे और उस बातचीत में ही हम लोगों को मालूम पड़ गया था कि रेसलिंग को छोड़ कर दोनों फिल्मों में दूर-दूर तक समानता नहीं है। 

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