मुझे लगा था कि मैं 'सूरमा' करके फंस जाऊंगा। वैसे भी हॉकी इतना मुश्किल खेल है कि कैसे करूंगा। जब ये फिल्म मुझे ऑफर हो रही थी, तो मैंने मना कर दिया था कि रहने दो। हॉकी प्लेयर संदीप सिंह पर बनी फिल्म 'सूरमा' के जरिए दिलजीत एक बार फिर से दर्शकों के सामने आ रहे हैं। 'वेबदुनिया' संवाददाता रूना आशीष ने दिलजीत से बातचीत की।
संदीप सिंह से आपका कभी मिलना हुआ था?
पहले कभी नहीं हुआ लेकिन फिल्म साइन करने के बाद एक छोटी-सी मुलाकात हुई थी। तब थोड़ी बातचीत हुई। मेरे लिए ये बहुत दु:ख की बात है कि मैं अपने ही प्रदेश के संदीप सिंह को नहीं जानता हूं। मैं बस इतना जानता था कि वे कैप्टन रह चुके हैं। लेकिन उन्होंने इतनी लड़ाइयां लड़ी हैं, मैं नहीं जानता था।
आपकी पुरानी जितनी भी फिल्मों को देखें तो पंजाब का बैकग्राउंड दिखता है। कभी दूसरी तरह की फिल्म नहीं करना चाहेंगे?
'उड़ता पंजाब' और 'सूरमा' दोनों में पंजाब का ही जिक्र है। 'फिल्लौरी' में कहा ही गया था कि रोल छोटा है। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि अलग नहीं करना चाहूंगा। मुझे एक बार ऐसी फिल्म मिली भी थी कि लेकिन रोल पसंद नहीं आया। फिल्म अच्छे बैनर की भी थी लेकिन वो मामला नहीं जमा। एक और फिल्म थी। अच्छी चली भी लेकिन वहां भी मुझे मेरा रोल पसंद नहीं आया था। मेरे सामने कोई अच्छा ऑफर हो तो मैं भी अपने आप को वैसा ढाल लूं। कोई सोचे तो सही।
बिलकुल नहीं। बचपन में भी मैं कभी स्पोर्ट में आगे नहीं रहा। हां, मैंने गलियों वाले गेम्स बहुत खेले हैं। लुका-छिपी या गिल्ली-डंडा या बांदर-किल्ला।
कुश्ती खेली होगी?
नहीं, मैं बचपन में कोई बड़ा-सा नहीं था। बिलकुल दुबला-पतला रहा हूं हमेशा। मेरे दोस्त बहुत खेलते थे लेकिन मैंने कभी मैदानी खेल नहीं खेले।
हॉकी कैसी लगी? प्रैक्टिस करनी पड़ी होगी?
हां फिल्म के समय सीखी। 4 महीने मुझे संदीप पाजी ने ही सिखाई। फिर फिल्म शुरू हुई तब हॉकी खेली। लेकिन दुख की बात है कि हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल नहीं है। हाल ही में ओडिशा के मुख्यमंत्री (नवीन पटनायक) ने सरकार से दरख्वास्त की है कि यह हमारे देश में खेला जाने वाला सबसे पुराना खेल है, इसे कम से कम अब तो राष्ट्रीय खेल घोषित किया जाए। अगर आप देश के बाहर जाएं और लोग आपसे पूछें कि हमारे देश का राष्ट्रीय खेल क्या है? तो आपको बुरा लगता है कि आप कोई नाम नहीं ले सकते।
फिल्म में संदीप अपने प्यार की वजह से हॉकी खेलता है, आपने ऐसा कुछ किया है?
वैसे वाला प्यार तो नहीं हुआ। लेकिन हां, अपने मां की प्यार की वजह से एक बड़ा इंसान बनने की कोशिश की और मेहनत करके इस मुकाम पर पहुंचा हूं।
आपने इस बार गुलजार साहब के लिखे गीत गाए?
मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी बात है। 'इश्क दी बाजियां' उन्होंने लिखा है। मैं तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकता कि मैं गुलजार साहब का लिखा गाऊंगा। संगीत में भी मेरी तो कभी हिम्मत नहीं बंधती कि मैं शंकर एहसान या लॉय को अपने किसी गाने के लिए अप्रोच कर पाता। वो तो उस फिल्म की वजह से हुआ। मैं तो अपनी फीलिंग के चलते गाता हूं, लेकिन इन लोगों के गाने में ऑटो ट्यून लगी होती है।
आपको पंजाबी और हिन्दी फिल्मों में क्या अंतर दिखता है?
कोई खास नहीं, बस मेरी हिन्दी ठीक-ठाक-सी है, तो कभी-कभी परेशानी भी हो जाती है वर्ना पंजाबी में परेशानी नहीं होती है। यहां डायलॉग याद करके बोलने होते हैं और वहां पंजाबी में पढ़कर समझ लेता हूं कि क्या बोलना है, फिर कैमरा ऑन करके वही बात बोल देता हूं।