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जरीना वहाब : साधारण चेहरा, असाधारण प्रतिभा

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हमें फॉलो करें जरीना वहाब

समय ताम्रकर

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सत्तर के दशक में गोरा रंग हीरोइन बनने की सबसे पहली और अनिवार्य शर्त हुआ करती थी। उस दौर में सामान्य रंग और रूप वाली लड़की सपने में भी सोच नहीं सकती थी कि वह हीरोइन बन सकती है। इस तरह की सोच के बीच आंध्र प्रदेश में जन्मी जरीना वहाब नामक लड़की ने धारा के विपरीत तैरने की ठानते हुए पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया में दाखिला ले लिया।

स्कूल में पढ़ने वाली जरीना ने इस संस्थान का विज्ञापन देखकर आवेदन किया था। जरीना का एडमिशन हो गया, लेकिन उनकी राह आसान नहीं थी। उनके सामान्य लुक को लेकर कई बातें उन्हें सुनाई गई। कहते हैं कि राज कपूर ने भी जरीना को देख कह दिया था कि वे कभी हीरोइन नहीं बन सकती हैं, लेकिन जरीना ने इसे चैलेंज के रूप में लिया और शो-मैन को गलत साबित किया।

नहीं बन पाई गुड्डी
एफटीआईआई से निकलने के बाद जरीना का संघर्ष शुरू हो गया। व्यावसायिक फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशकों को जरीना में ‘हीरोइन मैटेरियल’ नजर नहीं आया और वे उन्हें छोटे-मोटे रोल से ज्यादा देने के लिए भी तैयार नहीं थे।

इसके पहले एक बेहतरीन अवसर जरीना के हाथ से निकल गया। फिल्म ‘गुड्डी’ के लिए निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने जरीना के नाम पर विचार किया था क्योंकि उन्हें अपनी फिल्म के लिए गर्ल नेक्स्ट डोर जैसी अभिनेत्री चाहिए थी। जरीना में ये सारी खूबियां थीं। साथ ही वे अच्छा अभिनय भी कर लेती थीं। लेकिन अंत में इस रोल के लिए ऋषिदा ने जया बच्चन को चुना।

राज कपूर वाली बात और गुड्डी के हाथ से निकलने के बावजूद जरीना निराश नहीं हुईं क्योंकि कुछ कर गुजरने की धुन उन पर हावी थी। आखिरकार उन्हें पहला अवसर बॉलीवुड की एक बड़ी हस्ती के जरिये ही मिला। जरीना को पता चला कि देव आनंद अपनी नई फिल्म ‘इश्क इश्क इश्क’ (1974) के लिए एक नए चेहरे की तलाश में हैं। यह रोल फिल्म की नायिका जीनत अमान की बहन का था। जरीना सीधे मेहबूब स्टुडियो जा पहुंची और स्क्रीन टेस्ट दिया। उनका चयन हो गया और फर्स्ट ब्रेक मिला।

चितचोर ने जीता मन
इश्क इश्क इश्क बुरी तरह फ्लॉप रही और जरीना को नोटिस भी नहीं किया गया। उन्हीं दिनों राजश्री प्रोडक्शन वाले नए कलाकारों के साथ काम करना पसंद करते थे। उनकी फिल्मों की कहानी भी गांव और ग्रामीणों के इर्दगिर्द घूमती थी। उन्हें अपनी नई फिल्म ‘चितचोर’ (1976) के लिए हीरोइन की तलाश थी। घर बैठे जरीना को इस फिल्म का ऑफर मिला।

इस फिल्म का निर्देशन बसु चटर्जी कर रहे थे। कहानी के मुताबिक गांव में रहने वाली जरीना को शहर में रहने वाले लड़के से प्यार हो जाता है। जरीना के हीरो थे अमोल पालेकर। मधुर संगीत, उम्दा कहानी, शानदार अभिनय और बसु का जादुई निर्देशन का कुछ ऐसा कॉम्बिनेशन बना कि फिल्म दर्शकों को बेहद पसंद आई।

उस समय मल्टीस्टारर और बड़े बजट की फिल्मों की धूम थी। ऐसे में ‘चितचोर’ जैसी छोटे बजट की फिल्म की सफलता ने सभी का ध्यान खींचा। बाद में अमोल पालेकर के साथ भी जरीना ने कुछ फिल्में की और राजश्री प्रोडक्शन के बैनर तले भी उन्हें कई उम्दा फिल्में करने को मिली।

अभिनय की चमक
फिल्म इंडस्ट्री में अक्सर यह देखने को मिलता है कि प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हो पाता है। ऐसा जरीना के लिए भी कहा जा सकता है। जरीना से बड़े स्टार्स और बैनर ने सदैव दूरी बनाए रखी। सत्तर और अस्सी के दशक के हीरो कुछ खास हीरोइनों के साथ ही फिल्में करते थे। ऐसे में जरीना को बतौर हीरोइन अपना अस्तित्व बनाए रखने में कड़ा संघर्ष करना पड़ा। वे इसमें कुछ हद तक सफल भी रहीं। बिना किसी बड़े स्टार के सहारे उन्होंने अपनी पारी खेली।

हर वर्ष उनकी दो-तीन फिल्में आती रहीं जिनमें वे अपने अभिनय की चमक बिखेरती रहीं। घरोंदा (1977), अनपढ़ (1978), गोपाल कृष्ण (1979), सावन को आने दो (1979) नैया (1980), सितारा (1980), तड़प (1982) जैसी फिल्मों से जरीना अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहीं। इनमें से कुछ फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर सफलता भी मिली।

जरीना ने इस दौरान दक्षिण भारतीय कई फिल्मों में भी अभिनय किया और कमल हासन जैसे नायक की भी नायिका बनी। हर कलाकार चाहता है कि वह स्क्रीन पर तरह-तरह के रोल निभाए जिससे उसका विकास भी हो। एक जैसे रोल निभाते हुए मन उकता जाता है। जरीना के साथ भी यही हुआ। जब उन्हें लगा कि उन्हें ऑफर हो रही भूमिकाओं में वैरायटी नहीं है तो उन्होंने काम लेना कम कर दिया।

बीस दिन में प्यार और शादी
1986 में फिल्म कलंक का टीका के सेट पर जरीना की मुलाकात आदित्य पंचोली नामक शख्स से हुई जो फिल्मों में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा था। यह मुलाकात बड़ी ही ड्रामेटिक रही। पहली मुलाकात से ही दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे और 20 दिन बाद दोनों ने शादी कर ली।

इस शादी को लेकर काफी कुछ कहा गया क्योंकि उस समय जरीना नामी कलाकार थी तो आदित्य का नाम कई लोगों के लिए अपरिचित था। दोनों की उम्र में 6 वर्ष का अंतर भी है। जरीना से शादी करने का फायदा आदित्य को पहुंचा और उन्हें पहचाना जाने लगा। बाद में आदित्य ने कई फिल्मों में काम किया और जरीना ने हाउसवाइफ की भूमिका को निभाना पसंद किया।

आदित्य के मिजाज को देख अक्सर यह कहा जाता था कि दोनों की शादी ज्यादा दिनों तक नहीं टिकेगी। आदित्य बड़े गुस्सैल और रंगीन मिजाज आदमी माने जाते हैं। लेकिन जरीना आदित्य की तारीफ करते हुए कहती हैं कि आदित्य इतने गुस्सैल नहीं हैं जितनी कि उनकी इमेज है। वे मेरा और बच्चों का पूरा ध्यान रखते हैं।

सना और सूरज
बच्चों के बड़े होने के बाद जरीना ने टीवी और सिनेमा की ओर रुख किया। हालांकि जरीना की उम्र के कलाकारों के लिए भारतीय ‍फिल्मों में ज्यादा गुंजाइश नहीं रहती है फिर भी पिछले दो-तीन वर्षों में उन्हें अच्छी और बड़े बजट की फिल्में मिली हैं। उनकी मलयालम फिल्म अदामिंते मकन अबू को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और भारत की ओर से इसे ऑस्कर में भी भेजा गया था। रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘रक्तचरित्र’ में वे नजर आईं।

जरीना को करण जौहर की मां हीरू जौहर बेहद पसंद करती हैं और उनके कहने पर करण की फिल्मों ‘माई नेम इज खान’ और ‘अग्निपथ’ (2012) में जरीना नजर आईं। इन फिल्मों में उन्होंने शाहरुख खान और रितिक रोशन जैसे सुपरस्टार्स की मां की भूमिका निभाई।

सना और सूरज जरीना की ‍बगिया के दो फूल हैं। बेटी सना अपने मॉम-डैड की तरह अभिनय की दुनिया में नाम कमाना चाहती हैं जबकि बेटा सूरज की चाह निर्देशक बनने की है। फिलहाल सूरज ‘एक था टाइगर’ नामक फिल्म में मशहूर निर्देशक कबीर खान को असिस्ट कर रहे हैं।

प्रमुख हिंदी फिल्में
चितचोर (1976), घरोंदा (1977), तुम्हारे लिए (1978), सावन को आने दो (1979) नैया (1979), गोपी कृष्ण (1979), सितारा (1980), रूही (1981), एक और एक ग्यारह (1981), चोर पुलिस (1983), हम नौजवान (1985), दहलीज (1986), अमृत (1986), तूफान (1989), किस्ना (2005), माई नेम इज खान (2010), रक्तचरित्र (2010), अग्निपथ (2012)

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