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मन्ना डे... यादों का सफर

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हमें फॉलो करें मन्ना डे
- ऋषि गौत

भारतीय संगीत की जानी मानी आवाजों में से एक मन्ना डे आज दुनिया से रूखसत हो गए। बावजूद इसके मो.रफी, मुकेश, हेमंत कुमार, तलत महमूद और किशोर कुमार की तरह मन्ना डे भी संगीत संसार में हमेशा मौजूद रहेंगे

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अपने समय के गायकों में निश्चित तौर पर मन्ना डे सबसे प्रतिभाशाली थे,लेकिन आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि उस दौर की तिकड़ी-दिलीप कुमार, देव आनंद और राजकपूर में से सिर्फ राजकपूर ने ही अपने लिए इनकी आवाज का इस्तेमाल किया। वह भी इसलिए कि मुकेश उन दिनों फिल्मों में हीरो बनने की जुगत में लगे हुए थे।

तब शंकर-जयकिशन ने मन्ना डे की आवाज में राजकपूर के लिए गीत रिकार्ड किए। वह गीत सुपर हिट भी हुए। उनमें फिल्म चोरी-चोरी का गीत 'ये रात भीगी-भीगी' और 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम' और 'श्री 420 का 'प्यार हुआ इकरार हुआ' इतने दिनों बाद,ल टके झटके वाले गाने के दौर में आज भी लोगों की जुबान पर हैं।

मेरा नाम जोकर, ऐ भाई जरा देख के चलो, जो उस फिल्म का थीम सांग था। इन गीतों को सुनकर हर किसी को लगा था कि मन्ना डे के अलावा और कोई इस गीत को गा ही नहीं सकता था। शंकर-जयकिशन के अलावा और किसी ने यह हिम्मत नहीं दिखाई कि किसी हीरो के लिए इनकी आवाज का इस्तेमाल कर सकें।

1 मई 1919 को उत्तरी कोलकाता के एक रुढ़िवादी संयुक्त बंगाली परिवार में पैदा होने वाले मन्ना डे के बारे में कहा जाता है कि संगीत में उनकी रूचि अपने चाचा केसी डे की वजह से पैदा हुई। हालांकि उनके पिता चाहते थे कि वो बड़े होकर वकील बने। लेकिन मन्ना डे ने संगीत को ही चुना।

कलकत्ता के स्कॉटिश कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ मन्ना डे ने केसी डे से शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सीखीं। कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता के दौरान मन्ना डे ने लगातार तीन साल तक ये प्रतियोगिती जीती। आखिर में आयोजकों को ने उन्हें चांदी का तानपुरा देकर कहा कि वो आगे से इसमें हिस्सा नहीं लें।

23 साल की उम्र में मन्ना डे अपने चाचा के साथ मुंबई आए और उनके सहायक बन गए। उस्ताद अब्दुल रहमान खान और उस्ताद अमन अली खान से उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा। इसके बाद वो सचिन देव बर्मन के सहायक बन गए। इसके बाद वो कई संगीतकारों के सहायक रहे और उन्हें प्रतिभाशाली होने के बावजूद जमकर संघर्ष करना पड़ा।

1943 में आई फिल्म ‘तमन्ना’ के जरिए उन्होंने हिन्दी फिल्मों में अपना सफर शुरू किया और 1943 में बनी ‘रामराज्य’ से वे प्लैबैक सिंगर बन गए। सचिन दा ने ही मन्ना डे को सलाह दी कि वे गायक के रूप में आगे बढ़ें और मन्ना डे ने सलाह मान ली।

इसके बाद अपने संगीत के सफर में मन्ना डे ने लोकगीत से लेकर पॉप तक हर तरह के गीत गाए और देश विदेश में संगीत के चाहने वालों को अपना मुरीद बनाया। 'चाहे वो मेरी सूरत तेरी आंखें का' 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' हो या दिल ही तो है का 'लागा चुनरी में दाग',बुढ्ढा मिल गया का 'आयो कहां से घनश्याम' या बसंत बहार का 'सुर न सजे' जैसे हर गाने पर मन्ना डे अपनी छाप छोड़ जाते थे। उन्होंने हिन्दी के अलावा बंगाली, मराठी, गुजराती, मलयालम, कन्नड और असमिया भाषा में भी गीत गाए। हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कृति ‘मधुशाला’ को भी उन्होंने अपनी आवाज दी।

अपने संगीत के रुपहले सफर में उन्होंने 3500 गाने गाए है। सरकार ने उन्हें 1971 में पद्मश्री अवार्ड, 2005 पद्म भूषण अवार्ड व वर्ष 2007 में दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया। मन्ना डे ने आनंद प्रकाशन के अंतर्गत वर्ष 2005 मे बांग्ला भाषा में अपनी आत्मकथा जीवनेर जलसाघरे लिखी है। हालांकि बाद में यह आत्म कथा अंग्रेजी, मराठी भाषा में भी प्रकाशित हुई।

अपने अंतिम दिनों में मन्ना डे ने इंडस्ट्री में संगीत की खस्ता हालत देखकर और अपनी स्थिति भांपकर मुंबई को छोड़ना ही बेहतर समझा था। वह बेंगलूर में अपने परिजनों के साथ रहते थे। वह अगर कहीं जाते भी थे, तो सिर्फ बुलावा आने पर।

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