बॉलीवुड ने एक वो दौर भी देखा है, जब फिल्मों में नायक से कहीं ज्यादा खलनायक लोकप्रिय हुआ करते थे और उनकी अदायगी का लोहा माना जाता था। चाहे अजीत हो या फिर प्राण या फिर चाहे फिल्म शोले के गब्बर सिंह हों, इन लोगों की डॉयलाग डिलेवरी को उस दौर की पीढ़ी आज तक याद रखती है। खलनायिकाओं के किरदार में 'बिंदु' ने भी अपनी अलग पहचान बनाई। सिल्वर स्क्रीन पर बिंदु भले ही एक क्रूर महिला का किरदार अदा करती थीं, लेकिन असल जिंदगी में उनकी जैसी अदाकारा चिराग लेकर भी ढूंढने से नहीं मिलेगी...
बिंदु ने संघर्ष का जो लंबा सफर तय किया, उसकी एक बानगी गुजरे रविवार को बहुत कम देशवासियों ने सुनी होगी, लेकिन जिसने भी सुनी, वो उन्हें सलाम किए बगैर नहीं रहा...'विविध भारती' के कार्यक्रम 'उजाले उनकी यादों के' के तहत यूनुस खान से बिंदु की बातचीत का पहला भाग दिल को छू गया। इसमें परदे पर 160 फिल्मों में निगेटिव रोल करके दर्शकों की जलीकटी सुनने वाली 76 वर्षीय बिंदु ने अपनी जिंदगी में क्या कुछ नहीं देखा, उससे रूबरू होने का मौका मिला। कांटों से भरी उनकी जिंदगी कैसे गुलजार हुई, ये बातें खुद बिंदु की जुबानी पढ़िए...
17 अप्रैल 1941 को मेरा जन्म एक गुजराती परिवार में हुआ। पिता नानक भाई देसाई अपने भाइयों के साथ मिलकर फिल्में बनाते थे। तब फिल्में बनाने के लिए लाइसेंस लेना होता था और हमारे परिवार के पास दो लाइसेंस थे। मेरी मां ज्योत्सना स्टेज आर्टिस्ट थीं। घर में फिल्मी माहौल होने के बाद भी मुझे हमेशा इस लाइन से दूर रखा।
यहां तक कि बचपन में हमें फिल्में देखने की इजाजत भी नहीं थी। मैं घर में रेडियो पर फिल्मी गीत सुनती थी और उस पर डांस करती थी। तब हमारा परिवार गुजरात के वलसाड़ जिले के हनुमान भागड़ा गांव में रहता था। बाद में हम लोग मुंबई शिफ्ट हो गए। यहीं पर मैंने पहले दु:खभरी जिंदगी देखी और फिर अपनी मेहनत और कभी हार न मानने की जिद की बदौलत एक मुकाम हासिल किया।
छुटपन में ही मैंने भरतनाट्यम और कत्थक सीखा। डांस का शौक इस कदर दिमाग में चढ़ा था कि एक कमरे से दूसरे कमरे तक मैं डांस करते ही जाया करती थी। मैं बहुत छोटी थी और एक बार अपनी मां का स्टेज शो देखने के लिए चली गई। नाटक में मां ने क्या डॉयलाग बोला, वो तो नहीं समझ पाई, लेकिन मैंने देखा कि पूरा हॉल रो रहा है। दूसरे लोगों को देखकर मेरी भी रुलाई फूट गई। बाद में मैं रोते हुए मां के पास गई तो वो बोलीं, 'रो क्यों रही है?' मैंने भोलेपन से कहा कि सबको रोता देख मैं भी रो पड़ी।
मैं घर में भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी और मेरी 6 बहनें और एक भाई था। अचानक मेरे पिता का देहांत हो गया, तब मेरी उम्र केवल 13 बरस थी... जब पिताजी अस्पताल के बिस्तर पर मौत से जूझ रहे थे, तब उन्होंने अपने पास बुलाया और कहा, 'एक वादा कर कि मेरे जाने के बाद तू अपने छोटे भाई-बहनों का पूरा ध्यान रखेगी।' फिर वो बोले, जब मैं इस दुनिया में नहीं रहूंगा, तब ये बुड्ढा तेरा ख्याल रखेगा। असल में वे शिर्डी के साईंबाबा को बुड्ढा कहते थे।
आप अंदाज लगा सकते हैं कि 13 साल की उम्र में मेरे सिर से पिता का साया उठ चुका था, तब मेरी स्थिति कैसी होगी? वो भी तब जब मेरे ऊपर 6 बहनों और एक छोटे भाई की जिम्मेदारी आ गई थी। मैंने पैसा कमाने के लिए मॉडलिंग की। फिर 1962 में मुझे डायरेक्टर मोहन कुमार की सुपरहिट फिल्म 'अनपढ़' में काम करने का मौका मिला।
मेरी मातृभाषा गुजराती थी, लेकिन इसके बाद भी मैंने मेहनत की और शुद्ध हिंदी सीखी। इसके बाद मुझे कहीं काम नहीं मिला, इस बीच मेरी मुलाकात चंपक लाल झवेरी से हुई। चंपक मेरी बिल्डिंग के पीछे ही रहते थे और उनकी बहन मेरी खास दोस्त थी, इसलिए घर आना-जाना था।
जब उनके घरवालों को पता चला कि बेटा बिंदु से इश्क की पींगें बढ़ा रहा है तो कई तरह की पाबंदियां लगा दी गईं। पाबंदियों के बाद भी हमारा प्रेम परवान चढ़ता चला गया और आखिरकार 1964 में मेरी शादी चंपक लाल झवेरी से हो गई। तीन दिन तक हमारी शादी का जश्न चला, लेकिन उसके बाद उनके घरवालों ने आंखें फेर लीं और पतिदेव को पुश्तैनी बिजनेस से भी बेदखल कर दिया गया।
यूं तो शादी के बाद मुझे अपने ससुराल जाना था लेकिन मैं गई नहीं, क्योंकि शादी इसी शर्त पर की थी कि मुझे अपने छोटे भाई और 6 बहनों की परवरिश करनी है। चंपक बहुत समझदार थे और वे अपना घर छोड़कर मेरे साथ रहने लगे। हमेशा मुझे हौसला देते थे कि हम दोनों मिलकर न केवल घर चला लेंगे, बल्कि बच्चों की परवरिश भी करेंगे। सच पूछा जाए तो मेरा ससुराल से पूरी तरह नाता टूट चुका था।
एक बार हम अपने पारिवारिक मित्र चन्द्रशेखर की पार्टी में गए। तब साथ में मेरी सबसे छोटी बहन भी थी। वहां पर ख्यात संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल भी आए हुए थे। मुझे नहीं मालूम कि लक्ष्मीजी से मेरी बहन की कब आंखें चार हो गईं..लक्ष्मीजी घर आने लगे और मेरी छोटी बहन का उनसे विवाह हो गया। हमारे घर के पास ही लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का स्टूडियो हुआ करता था। एक रात बहुत देर हो गई, वे नहीं आए, तब मैं अपनी बहन के साथ स्टूडियो पहुंची। वे एक फिल्म के म्यूजिक में व्यस्त थे।
वहां पर राज खोसला जी भी थे। उन्होंने लक्ष्मीजी से पूछा ये कौन है? उन्होंने बताया कि बिंदु मेरी साली है। राज खोसला ने पूछा, फिल्मों में काम करोगी? मैंने हां कह दिया। वो बोले, मैं एक फिल्म बनाने वाला हूं, 'दो रास्ते' उसमें निगेटिव रोल है। मैंने हां कह दी। 15 दिन बाद वे फिल्म 'मेरा साया' की शूटिंग पर थे और संदेश आया कि आ जाओ, तुम्हारा स्क्रीन टेस्ट लेना है। मैं वहां पहुंची और मुझे एक डॉयलाग दिया। मैंने खूब तैयारी की और डॉयलाग एक ही शॉट में कहा। 'कट' के साथ वो सिंगल टेक का शॉट खत्म हुआ और मेरे काम के लिए तालियां बजीं। इस तरह मुझे फिल्म 'दो रास्ते' में एंट्री मिल गई।
स्टूडियों में गीतों की जब रिकॉर्डिंग होती तो मैं भी वहां होती। 'दो रास्ते' का संगीत लक्ष्मीकांत यानी मेरे जीजाजी और प्यारेलाल जी ने दिया जबकि गीत आनंद बक्शी के थे। जब 'बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी, तेरी नींद उड़े तो उड़ जाए, कजरा बहकेगा' की रिहर्सल चलती तो आनंद बक्शी मुझे चिढ़ाते कि ये गाना भले ही मुमताज के लिए बना है, लेकिन देखना इसमें बिंदु चमकेगी...और हुआ भी वही।
हां, शुरू के दो हफ्ते फिल्म 'दो रास्ते' की प्रतिक्रिया ठीक नहीं रही लेकिन बाद में तो यह फिल्म सुपरहिट साबित हुई। इस फिल्म के बाद ही मुझे एक बार शक्ति सामंत ने बुलवाया। कहा, मैं फिल्म 'कटी पतंग' बना रहा हूं। उसमें एक कैबरे के लिए तुमको रोल देना चाहता हूं। मैंने कभी कैबरे डांस नहीं किया था। फिर मैंने अपने आपसे कहा कि बिंदु तेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं है। तुझे ये रोल करना ही है।
'मेरा नाम है शबनम प्यार से लोग मुझे कहते हैं शब्बो ता रा रु रु ता रा ता रा रु रु ता रा रा रा रू या ए पहचाना मिले थे कभी, उस रात को, हूं डरो नहीं बात है वो राज़ की पर राज़ राज़ ही रहेगा मेरा नाम है शबनम प्यार से लोग मुझे शब्बो कहते हैं तुम्हारा नाम क्या है रीना मीना अंजू या मंजू रीना मीना अंजू मंजू या मधु।' मेरा ये कैबरे भी सुपरहिट हुआ। इसके बाद मैं कामयाब होती गई और मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
मैंने बताया ना कि मुझे शिर्डी वाले साईंबाबा पर काफी श्रद्धा रही है। घर में उनकी बड़ी सी मूर्ति स्थापित की हुई है। हर गुरुवार को विशेष पूजा होती है। मेरी कायमाबी में मेरे पति चंपक का बहुत बड़ा हाथ रहा। भले ही मैं ज्यादा नहीं पढ़ पाई, लेकिन मैंने अपनी सभी बहनों को खूब पढ़ाया। उनमें से एक डॉक्टर बनी तो एक लॉयर। सब बहनें और भाई सेट है। मैं अपने पति का ये अहसान कभी नहीं भूल सकती कि उन्होंने मेरे पीछे अपना परिवार छोड़ा और मेरे घर रहकर न केवल मुझे प्रोत्साहित किया, बल्कि मेरे बहनों और भाई को भी संभाला। आज मैं जो कुछ हूं, वो मेरे पति चंपक लाल झवेरी की वजह से हूं...
अवॉर्ड के लिए बिंदु इन फिल्मों के लिए नॉमिनेशन हुईं :
* फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस इत्तेफाक (1969)
* फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस दो रास्ते (1970)
* फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस दास्तान (1972)
* फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस अभिमान (1973)
* फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस हवस (1974)
* फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस इम्तिहान (1974)
* फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस अर्जुन पंडित (1976)\
बॉलीवुड में बिंदु की बहुचर्चित फिल्में :
अनपढ़ (1962)
औरत (1967)
आया सावन झूम के (1969)
इत्तेफाक (1969)
कटी पतंग (1970)
अमरप्रेम (1971)
मेरे जीवनसाथी (1972)
धर्मा (1973)
जंजीर (1973)
हवस (1974)
इम्तिहान (1974)
अर्जुन पंडित (1976)
दस नंबरी (1976)
नहले पर दहला (1977)
देस परदेस (1978)
खानदान (1979)
शान (1980)
लावारिस (1981)
नसीब (1981)
प्रेमरोग (1982)
हीरो (1983)
कर्मा (1986)
आंखे (1993)
हम आपके हैं कौन (1994)
जुड़वां (1997)
बनारसी बाबू (1998)
मैं हूं ना (2004)
ओम शांति ओम (2007)
मेहबूबा (2008)