Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

मुबारक बेगम : कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी

हमें फॉलो करें मुबारक बेगम : कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी
(श्रीराम ताम्रकर द्वारा लिखित पुस्तक 'बीते कल के सितारे' से साभार) 
 
कलाकार का जीवन कितनी विचित्रताओं और विडंबनाओं से भरा होता है, इसका प्रमाण हैं मुबारक बेगम। झंझनु राजस्थान में जन्मीं तथा अहमदाबाद गुजरात में पली-बढ़ी मुबारक बेगम को गाने का शौक बचपन से था। गरीबी के कारण परिवार उन्हें स्कूली शिक्षा नहीं दिला सका। अनपढ़ और निरक्षर होते हुए भी वह पार्श्वगायन के क्षेत्र में बुलंदी तक पहुंचीं। संगीत की प्रारंभिक तालीम किराना घराने के उस्तादों से पाई। गायन की विशिष्ट शैली के कारण उन्हें ऑल इण्डिया रेडियो में भी बुलाया जाने लगा।
 
इस अनपढ़ और निरक्षर गायिका ने फिल्मी दुनिया में प्रवेश के पहले दो अवसर गंवाए। पहली बार संगीतकार रफीक गजनवी ने अपनी फिल्म में गाने का अवसर दिया। स्टुडियो की भीड़भाड़ देखकर वह घबरा गईं और बिना गाए घर लौटी। इस प्रसंग के कुछ दिनों बाद राम दरयानी ने उन्हें अपनी फिल्म में गाने का अवसर दिया। इस बार भी वे 'फ्लॉप' रहीं। अनपढ़ और अवसर चूकने वाली इस गायिका ने उत्कर्ष के शिखर को भी छुआ और बुढ़ापे में गरीबी का गरल पीने को बाध्य हुईं।
 
दो अवसर चूकने वाली इस गायिका को तीसरा अवसर फिल्म अभिनेता याकूब ने दिया। फिल्म में उन्होंने गाया- 'मोहे आने लगी अंगड़ाई।' इस फिल्म के संगीतकार थे शौकत देहलवी। सन 1949 में 'आइए' नामक यह फिल्म प्रदर्शित हुई और फिर 'अंगड़ाई' के साथ मुबारक बेगम ने ऊंचाई तक पहुंचने वाली सीढ़ियों पर कदम रखा। इसके बाद 1951 में प्रदर्शित 'फूलों का हार' फिल्म में सभी गीत गाए। उस जमाने में गायकों और पार्श्व गायकों का पारिश्रमिक बहुत कम था। सौ से लेकर एक सौ पचास रुपये प्रति गीत मिलते थे। फूलों के हार के संगीत निर्देशक हंसराज बहल थे।
 
मुबारक बेगम भले ही पढ़ी लिखी नहीं थीं, मगर गीत रिकॉर्डिंग के पहले उसे दो बार किसी से पढ़वा लेती थीं। उन्हें एक-एक शब्द कंठस्थ हो जाता। मजाल है कि कोई गलती हो जाए। 
 
पचास के दशक में मुबारक बेगम ने उस जमाने के कई प्रति‍ष्ठित संगीतकारों की धुनों के साथ गाया। इनमें गुलाम मोहम्मद, जमाल सेन, नौशाद, सरदार मलिक, सलिल चौधरी प्रमुख थे। पचास और साठ के दशक में मुबारक बेगम के कंठ ने कई गीतों को अमर बनाया। इनमें 'देवता तुम मेरा सहारा' (दायरा) भी एक है। मोहम्मद रफी के साथ गाया गया यह गीत आज भी दिल को झकझोर देता है। फिल्म 'दायरा' बॉक्स ऑफिस पर पिट गई। इस कारण मुबारक बेगम को प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई।
 
सन् 1961 में केदार शर्मा की फिल्म 'हमारी याद आएगी' प्रदर्शित हुई। इस फिल्म के शीर्ष गीत 'कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी' ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। इस फिल्म का संगीत स्नेहल भाटकर ने दिया था। लोकप्रियता के इसी क्रम में फिल्म 'हमराही' का गीत 'मुझको अपने गले लगा लो' आया। शंकर-जयकिशन ने ‍इस फिल्म को अपने संगीत से संवारा था। 
 
यह समय मुबारक बेगम के जीवन का स्वर्णकाल रहा। उनके व्यावसायिक हितों की देखभाल उनके पिता करते थे। लेमिंग्टन रोड की इमारत में बड़े से फ्लैट में वह अपने परिवार के साथ किराए पर रहती थीं। बड़ा परिवार था, किंतु भविष्य के लिए बचत अथवा निवेश किसी को नहीं सूझा। दुर्भाग्य किसी न किसी रूप में इस महान गायिका का हमराही बनता गया। अपनी योग्यता प्रमाणित करने के बाद भी उनको उचित प्रतिफल नहीं मिल पाया। 
 
वह अनपढ़ तो थी हीं, साथ ही दुनिया के दस्तूर समझ पाने का माद्दा भी नहीं था। इसीलिए 'इण्डस्ट्री' में पकड़ नहीं बन पाई। यही कारण था कि अच्छे परिणाम देने के बावजूद धीरे-धीरे उन्हें काम मिलना बंद हो गया। उनकी यादगार कृतियों में 'नींद न उड़ जाए तेरी चैन से सोने वाले' (जुआरी/ कल्याणजी-आनंदजी), 'हमें दइके सौतन घर जाना' (ये दिल किसको दूं/ इकबार कुरैशी), 'वादा हमसे किया' (सरस्वतीचंद्र/ कल्याणजी-आनंदजी) आदि गीत प्रमुख हैं। 
 
सत्तर का दशक आते-आते उनको काम मिलना बंद होता गया। यही नहीं, जो गीत उनकी आवाज में रिकॉर्ड कराए गए थे, वह भी जब रिलीज हुए तब आवाज किसी और की थी। इस तथ्य को उजागर करते हुए उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया कि- 'परदेसियों से न अंखिया मिलाना' (जब जब फूल खिले) तथा 'अगर मुझे न मिले तुम' (काजल) मूल रूप से उनकी आवाज में रिकॉर्ड कराए गए थे। ऐसा कई बार हुआ। वर्ष 1980 में 'रामू तो दीवाना है' फिल्म में 'सांवरिया तेरी  याद में' उनके द्वारा गाया गया गया अंतिम फिल्मी गीत रहा। 
 
बेकारी के साथ मुफलिसी ने उनका दामन थाम लिया। लेमिंग्टन रोड के बड़े फ्लैट का किराया चुका पाना मुश्किल होने लगा। सुनील दत्त ने उनकी मुश्किल को समझा और अपने प्रभाव का उपयोग कर जोगेश्वरी में सरकारी कोटे से उनको एक छोटा-सा फ्लैट दिलवा दिया। उन्हें सात सौ रुपये माहवार की पेंशन भी मिलने लगी। मुबारक बेगम की आवाज के दीवाने दुनियाभर में फैले हुए हैं। उनकी दयनीय हालत देख उनके प्रशंसक कुछ न कुछ रुपये हर महीने उन्हें भिजवाते रहे। आखिर सात सौ रुपये महीने में गुजारा कैसे संभव था। बेटा टैक्सी चलाने लगा। पड़ोसी विश्वास नहीं कर पाते कि यह बूढ़ी, बीमार और बेबस औरत वह गायिका है जिसके गीत कभी कारगिल से कन्याकुमारी तक गूंजते थे। 
 
इस गायिका को 'फिल्म्स डिवीजन' ने याद किया। वर्ष 2008 में उन पर एक वृत्तचित्र बनाया गया। इसे गोआ में हुए अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

दिग्गज गायिका मुबारक बेगम नहीं रहीं