Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

राज कपूर : हम तुम्हारे रहेंगे सदा

Advertiesment
हमें फॉलो करें राज कपूर
पुण्यतिथि : 2 जून पर विशेष आलेख  
भारतीय सिनेमा के स्वर्णयुगीन फिल्मकार राजकपूर को गुजरे अट्ठाइस साल हो गए, लेनिक वे कभी अप्रासंगिक नहीं होंगे, क्योंकि उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सार्वकालिक महत्व का है।

सिर्फ साढ़े तिरसठ साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया से नाटकीय-रुखसत ली, जब वे दादा साहेब फालके अवार्ड ग्रहण करने दिल्ली गए थे। 2 मई 1988 को सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम एस.वेंकटरमन ने जब देखा कि राजकपूर को मंच तक आने में तकलीफ हो रही है, तो वे खुद ही उनकी सीट तक गए और सम्मान-पट्‍टिका प्रदान की। 
 
ठीक इसी क्षण इस महानायक को दमे का जोरदार दौरा पड़ा और वे सीट पर निढाल हो गए। राष्ट्रपति ने तुरंत हरकत में आकर उन्हें अपनी एम्बुलेंस से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान पहुँचाया, जहाँ पूरे एक माह तक वे मृत्यु से जूझे और चल बसे। उनके पार्थिव शरीर को ‍राजकीय विमान से मुंबई पहुँचाया गया और अगले दिन 3 जून को चेंबूर क्रिमे‍टोरियम में उनका दाह संस्कार कर दिया गया। 
 
पहुँची वहीं पे खाक, जहाँ का खमीर था। इसी चेंबूर में उनका आर.के.स्टूडियो है, जहाँ अब पहले जैसी रौनक नहीं रहती-मगर आम भारतीयों के दिलों में राज कपूर अब भी जिंदा हैं। ऐसी अमरता बहुत कम लोगों को हासिल होती है। राज कपूर ने अपनी महानतम फिल्म मेरा नाम जोकर में गाया भी था - 'कल खेल में हम हों न हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा भूलोगे तुम, भूलेंगे वे, पर हम तु्म्हारे रहेंगे सदा। 
 
नीलकमल के नायक
राज कपूर लगातार चार दशक तक फिल्मोद्‍योग पर छाए रहे। सिर्फ ग्यारह साल की उम्र में उन्होंने महान निर्देशक देवकी बोस की फिल्म 'वाल्मीकि' में अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ काम किया था। पृथ्वीराज न्यू थिएटर्स कलकत्ता में मुलाजिम थे, बाद में जब वे मुंबई आए तो पाँच और फिल्मों में किशोरवय राज कपूर ने छोटी-छोटी भूमिकाएँ कीं। 
 
निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा ने अपनी फिल्म 'नीलकमल' में मधुबाला के साथ नायक का रोल उन्हें दिया और बाईस साल की उम्र में राज कपूर ने अपनी पहली फिल्म 'आग' बनाकर सिनेप्रेमियों को चकित कर दिया। उन्होंने 1947 में अपने स्टूडियो की स्थापना की, जहाँ 'आग' से 'राम तेरी गंगा मैली' (1985) तक उन्होंने कुल 18 फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें से एकाध को छोड़कर शेष सभी को कालजयी कृतियाँ माना जाती है। 
 
फिल्में बनाने के लिए वे अभिनय से पैसा कमाते थे। वे आजाद भारत में उभरे तीन प्रमुख अभिनेताओं (दिलीप-देव-राज) में शुमार थे तो शांताराम, सोहराब मोदी, मेहबूब, बिमल रॉय, गुरुदत्त, देव आनंद और अशोक कुमार जैसे फिल्मकारों की श्रेणी में भी थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे निर्माता, निर्देशक, संपादक, स्टूडियो-मालिक, कहानी और गीत-संगीत की समझ रखने वाले विचारशील, संवेदनशील शोमैन थे। अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के दौरान राज कपूर ने ऐसा बहुत कुछ किया, जो आज भी अनुकरणीय माना जाता है। नए निर्माता-निर्देशकों के लिए उनकी फिल्म बाइबिल के समान है।
जीवन की पाठशाला
राज कपूर की विरासत का लेखा-जोखा बहुत विस्तृत है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनके सोच की मौलिकता थी। मैट्रिक की परीक्षा में लेटिन और गणित विषयों में फेल हो जाने के कारण उन्होंने औपचारिक शिक्षा को अनावश्यक मानकर छोड़ दिया तब पापा पृथ्वीराज कपूर से उन्होंने कहा था कि अगर किसी को वकील बनना हो तो लॉ-कॉलेज में जाता है। डॉक्टर बनने वाला मेडिकल में जाता है। मुझे फिल्म निर्माता बनना है, मैं कहाँ जाऊँ? राह थी - जीवन की पाठशाला। 
 
उन्होंने रणजीत स्टूडियो, बॉम्बे टॉकीज और फिर पृथ्वी थिएटर्स में प्रशिक्षण लिया। संगीत भी सीखा। फिल्मोद्योग में धूमकेतु की तरह उभरने के बाद उन्होंने बड़ी तेजी से अपनी टीम जुटाई। शंकर-जयकिशन, मुकेश, लता मंगेशकर, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मन्ना डे वगैरह राज कपूर की हस्ती के अविभाज्य अंग थे। अपने अभिनेता रूप के लिए उन्होंने चार्ली चैपलिन की ट्रैम्प (आवारा) छवि का चयन किया और आम आदमी बन गए। क्लास और मास ने उनकी इस छवि को समान रूप से पसंद किया। उनकी लोकप्रियता इस उपमहाद्वीप तक ही सीमित नहीं रही, रूस, चीन, टर्की तक पहुँची। 
 
वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाने वाले पहले भारतीय फिल्मकार थे। मृत्यु से पूर्व अमेरिका में भी उनकी फिल्मों ने लोकप्रियता पाई और वे ग्लोबल हो गए। अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में बनाने वाले सत्यजीत राय भी राज कपूर की आरंभिक फिल्मों के प्रशंसक थे।
 
भोला और भला मानस
राज कपूर ने जवाहरलाल नेहरू के आदर्शवाद को अंगीकार किया था और वे अमन के पैरोकार थे। अपने माध्यम की शक्ति को वे जानते थे और अपने कर्तव्यों का भी उन्हें अहसास था। उनकी फिल्मों के केलिडोस्कोप में कई रंगों की फिल्में हैं, जिन्हें सैल्यूलाइड पर कविता कहा जाता है। उन्होंने अपनी फिल्मों में सामाजिक प्रतिबद्धता और मनोरंजन तथा कला और व्यवसाय के बीच सामंजस्य कायम कर भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी।
 
भावुक और विचारशील राज कपूर की संगठन क्षमता अद्‍भुत थी। 'अहं ब्रह्मास्मि' के दर्शन में यकीन करने वाले राज कपूर ईश्वर-भीरू भी थे, लेकिन उनके आसपास रैशनल (विवेकी) लोगों का जमावड़ा था। उन्होंने 'आग' और 'बरसात' के बाद 'आवारा' (1951) बनाकर विश्व-सिनेमा के द्वार पर जोरदार दस्तक दी। 
 
बूट पालिश, श्री 420, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है (1960), संगम (1964), और मेरा नाम जोकर (1970) बनाई। इसके बाद युवा-प्रेमी के चोले को उतार फेंका। अगले दशक में उन्होंने अपने तीन बेटों को अभिनय और निर्देशन के क्षेत्र में उतारा, जिनमें से ऋषि कपूर ने अच्छी सफलता पाई। रणधीर कपूर भी फीके नहीं रहे। राज कपूर के अभिनय वाली बैनरों की फिल्में भी कमतर नहीं होती थीं, क्योंकि उनके केंद्र में भी भोला और भले मानस राज कपूर ही होते थे।
 
आर.के.बैनर की फिल्मों के लेखक भी एक से बढ़कर एक धाकड़ लोग रहे। ख्वाजा अहमद अब्बास ने, जो स्वयं भी अच्छे फिल्म-निर्माता थे, राज कपूर के लिए आवारा, श्री 420, मेरा नाम जोकर और बॉबी जैसी फिल्में लिखीं। उन्हें आश्चर्य होता था कि मेरी कहानी पर जो फिल्म राज कपूर बनाता है, वह सुपरहिट होती है, जबकि स्वयं की फिल्में पिट जाती हैं। अब्बास ने आवारा की कहानी मेहबूब को भी देना चाही थी, लेकिन वे मुकर गए, जबकि आवारा ने राज कपूर का भाग्य पलट दिया। राज कपूर की पहली फिल्म 'आग' के लेखक इंदर राज आनंद थे, जिन्होंने बाद में 'आह' और 'संगम' की कहानी लिखी। 
 
दूसरी फिल्म 'बरसात' के कहानीकार रामानंद सागर थे। बंगाल के प्रसिद्ध रंगकर्मी शंभू मिश्रा और अमित मैत्रा ने द्विभाषी फिल्म 'जागते रहो' (हिन्दी) और 'एक‍ दिनेर रात्री' (बंगला) लिखी थी। जिस देश में गंगा बहती है, के लेखक अर्जुनदेव रश्क थे, जबकि 'राम तेरी गंगा मैली' की कहानी खुद राज कपूर की थी। प्रयागराज, जैनेंद्र जैन, प्रभाकर ताम्हने, अख्तर मिर्जा, वीरेंद्र सिन्हा, कामना चंद्रा आदि भी उनके कहानीकार रहे। शैलेंद्र और हसरत के अलावा पंडित नरेंद्र शर्मा, नीरज और विट्‍ठलभाई पटेल ने भी आर.के.‍ की फिल्मों को गीत दिए। 
 
राज कपूर इत्मीनान से फिल्में बनाते थे और पूरी तसल्ली होने पर ही उन्हें प्रदर्शित करते थे। समय-समय पर उन्होंने आर्थिक झटके भी सहे। आत्मकथा फिल्म 'मेरा नाम जोकर' अपने आप में तीन फिल्मों का मसाला समेटे हुए थी और अगर यह बॉक्स ऑफिस पर पिटती नहीं तो राज कपूर का पक्का इरादा था कि वे जोकर भाग-दो भी बनाएँगे। लेकिन इस फिल्म के निर्माण में छ: साल लग गए। 'आवारा' और 'जागते रहो' के समान ही जोकर भी राज कपूर की कालजयी फिल्म समझी जाती है।
 
'...जोकर'  के बाद राज कपूर ने हॉलीवुड की फिल्म 'लव स्टोरी' की प्रेरणा से 'बॉबी' बनाई और आर्थिक संकट से उबर गए, क्योंकि वे जनरुचि का रहस्य जान गए थे। हवन करते हाथ न जला बैठें, इसलिए उन्होंने अपनी फिल्मों में बोल्ड स्नान-दृश्यों का सहारा लिया, जिससे तत्कालीन बुद्धिजीवी और खासकर प्रतिस्पर्धी निर्माता-निर्देशक बहुत कुंठित हुए। राज कपूर को अपने जीवन के उत्तरार्ध में आलोचना का शिकार होना पड़ा और उनके अभिनय को भी घिसा-पिटा बताया गया। लेकिन मात्र पिन चुभाने से राज कपूर जैसी ‍शख्सियत क्या फर्क पड़ता? वे सफलता के झंडे फहराते रहे। 
 
राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद हिन्दी सिनेमा के पहले बड़े तीन सितारे थे। कुंदनलाल सहगल और अशोक कुमार से इनकी स्थिति बेशक भिन्न थी। तीनों महत्वाकांक्षी युवा-तुर्क थे और कमोबेश नेहरूयुगीन आदर्शवाद से प्रभावित भी थे। अशोक कुमार, देव आनंद और दिलीप कुमार ने भी फिल्मों में अपने परिवारों की साख कायम करने के प्रयत्न किए, लेकिन पृथ्‍वीराज के परिवार ने जो स्थायित्व पाया, उसका कोई सानी नहीं। राज कपूर के भाई शम्मी कपूर और शशि कपूर उनके जीवनकाल में ही अपने ढंग के निराले अभिनेता और फिल्मकार थे। राज कपूर के तीनों बेटों -  रणधीर, ऋषि और राजीव ने भी अभिनय और निर्देशन के क्षेत्र में अपनी-अपनी पारी खेली। मुंबई में चेंबूर की चार एकड़ जमीन में राज कपूर का स्मारक आर.के. स्टूडियो आज भी खड़ा है, लेकिन पहले जैसी रौनक नहीं। जीवन-मूल्यों में परिवर्तन आ जाने के कारण दिशा-भ्रम की अवस्था है, मगर अब भी कई लोग उनसे आशान्वित हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

भाग्यशाली हूं जो यह मौका मिला: सनी लियोन