rajiv kapoor birth anniversary: फिल्मों में रूझान होना राजीव कपूर के लिए स्वाभाविक था क्योंकि वे उस खानदान से थे जिसने सबसे ज्यादा सितारे हिंदी फिल्मों को दिए और जो वर्षों से दर्शकों का मनोरंजन कर रहा है। पृथ्वीराज कपूर से यह सिलसिला शुरू हुआ और अभी भी रणबीर कपूर और करीना कपूर सक्रिय हैं। राजीव कपूर बॉलीवुड के शोमैन राज कपूर के सबसे छोटे बेटे थे। कपूर खानदान का रंग और झलक उनमें नजर आती थी। वे अपने चाचा शम्मी कपूर जैसे ज्यादा नजर आते थे, इसलिए जब उनकी पहली फिल्म 'एक जान हैं हम' 1983 में रिलीज हुई तो लोगों ने उन्हें शम्मी कपूर का ही अवतार बताया।
राजीव ने जब फिल्मों में कदम रखा तो ऋषि कपूर अपने करियर के सुनहरे दौर से गुजर रहे थे। इसलिए राजीव का मुकाबला घर से ही शुरू हो गया था। ऋषि कपूर की तरह राजीव पर भी रोमांटिक भूमिकाएं फबती थी और यही वजह रही कि ऋषि के कारण उनका करियर ठीक से आकार नहीं ले पाया।
राजीव की शुरुआत अपने पिता या भाइयों की तरह धमाकेदार नहीं रही। उन्हें संघर्ष करना पड़ा और आसमान (1984), मेरा साथी (1985), लावा (1985) और जबरदस्त (1985) जैसी फिल्में असफल रहीं। उसी समय राज कपूर 'राम तेरी गंगा मैली' भी बना रहे थे जिसमें लीड रोल में उन्होंने राजीव को लिया।
राम तेरी गंगा मैली नायिका प्रधान फिल्म थी इसलिए संभवत: राज कपूर ने ऋषि के बजाय राजीव को लिया ताकि उनके बेटे का करियर भी संवर जाए। राम तेरी गंगा मैली 1985 में रिलीज हुई और बॉक्स ऑफिस पर ब्लॉकबस्टर रही। इस फिल्म की सफलता का सारा फायदा नायिका मंदाकिनी ले गईं। राजीव कपूर जहां के तहां ही रहें।
कपूर खानदान से होने के कारण राजीव को फिल्में मिलती रहीं, लेकिन ये फिल्में बड़े निर्देशकों या बैनर की नहीं थी। वह दौर एक्शन फिल्मों का था और राजीव उन फिल्मों में फिट नहीं बैठते थे। इस वजह से उनकी प्रीति, हम तो चले परदेस, शुक्रिया जैसी फिल्में लगातार असफल होती रहीं। 1990 में रिलीज जिम्मेदार बतौर हीरो उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई। लगभग सात वर्षों के करियर में राजीव ने 14 फिल्में की।
कपूर खानदान से होने का राजीव को थोड़ा फायदा था तो नुकसान ज्यादा था। हमेशा भाइयों से तुलना होती रही। महान निर्देशक और अभिनेता का बेटा होने का दबाव बना रहा। खुद को अलग साबित करने तनाव हमेशा रहा। कपूर खानदान की चमक से अलग निकल कर अपनी पहचान बनाना आसान नहीं था।
राजीव समझ गए कि उनके लिए राह आसान नहीं है और उन्होंने हथियार डाल दिए। अभिनय को बाय-बाय कह दिया। कहते हैं कि राजीव को अभिनय के बजाय कैमरे के पीछे काम करने में ज्यादा रूचि थी। वे फिल्म प्रेम रोग में अपने पिता के सहायक भी थे। आरके बैनर तले उन्होंने फिल्म निर्देशित करने का फैसला लिया।
प्रेमग्रंथ (1996) उन्होंने निर्देशित की, जिसमें ऋषि कपूर और माधुरी दीक्षित लीड रोल में थे। इस फिल्म को देख लगता है कि राजीव में अच्छा निर्देशक बनने की संभावनाएं थीं।
प्रेमग्रंथ असफल रही। उस दौर में इस तरह की फिल्मों को पसंद नहीं किया जाता था। ऋषि कपूर का जादू उतार पर था। अभिनय के बाद निर्देशन में भी असफलता हाथ लगी तो राजीव निराश हो गए। शायद उनमें संघर्ष करने का लड़ने का माद्दा कम था। कुछ करने की भूख को असफलता ने खत्म कर दिया।
राजीव ने अपने आपको शराब में डूबो लिया। दिन-रात पीने लगे। मुंबई से दूर पुणे रहने चले गए। पारिवारिक कार्यक्रमों में कभी-कभी नजर आते थे। कभी उन्होंने बात करना पसंद नहीं किया। सोशल मीडिया से भी दूरी बना ली। असफलता ने शायद उन्हें तोड़ दिया था।
2001 में उन्होंने शादी भी की, लेकिन ये ज्यादा चल नहीं पाई। वे एकाकी हो गए। इस दुनिया को बातों को भूलाने के लिए उन्होंने नशे का ही सहारा लिया। वजन बढ़ गया। स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया, शायद इसीलिए वे 58 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए।