सदाशिव अमरापुरकर को ज्यादातर हिंदी फिल्मों में खलनायकी करते देखा गया है। विलेन के रोल को निभाने के लिए उनके पास न हष्ट-पुष्ट शरीर था और न ही दमदार आवाज, बावजूद इसके उन्होंने विश्वसनीयता के साथ खलनायकी के रंग दिखाए। पतली आवाज को संवाद अदायगी के जरिये बखूबी पेश करना और चेहरे पर ऐसे भाव लाना कि दर्शक उनसे नफरत करने लगे, सदाशिव के अभिनय की खासियत थी।
धर्मेन्द्र की एक फिल्म में सदाशिव ने भी अभिनय किया था। धर्मेन्द्र जब फिल्म डब कर रहे थे तो सदाशिव का अभिनय भी देख रहे थे। उन्होंने कहा कि यह फिल्म जरूर चलेगी क्योंकि सदाशिव की खलनायकी देख उन्हें ही गुस्सा आ रहा है तो दर्शक तो बैचेन हो जाएंगे।
भेड़चाल के लिए प्रसिद्ध बॉलीवुड ने उन्हें ज्यादातर खलनायक की भूमिका ही निभाने को दी, लेकिन सदाशिव को सिर्फ 'खलनायक' की भूमिका में बांधना उनके प्रतिभा के साथ न्याय करना नहीं होगा। मराठी नाटकों और फिल्मों में उन्होंने कई तरह के चरित्र निभाए।
11 मई 1950 को जन्मे सदाशिव अमरापुकर का वास्तविक नाम गणेशकुमार नरवाड़े था। पहले उनका रुझान गायकी की ओर था, लेकिन बाद में उन्होंने अभिनय में करियर बनाने का निश्चय किया। 1974 में जब वे नाटक करने लगे तो अपना नाम बदल लिया। मराठी नाटक 'आमरस' से वे चर्चा में आए और मराठी फिल्मों में व्यस्त हो गए।
1982 में वे 'हैंड्स अप' नामक नाटक कर रहे थे और दर्शकों में गोविंद निहलानी बैठे हुए थे। गोविंद उस समय अपनी फिल्म 'अर्धसत्य' के लिए कलाकार चुन रहे थे। सदाशिव का अभिनय उन्हें इतना पसंद आया कि उन्होंने 'अर्द्धसत्य' में सदाशिव को अहम रोल सौंप दिया। इस फिल्म में रामा शेट्टी के रूप में सदाशिव का अभिनय देख दर्शक दंग रह गए और सदाशिव रातों-रात प्रसिद्ध हो गए। ओम पुरी जैसे विश्वस्तरीय अभिनेता के सामने सदाशिव अपने अभिनय की छाप छोड़ने में सफल रहे।
अर्द्धसत्य के बाद हिंदी फिल्मों ने सदाशिव को हाथों-हाथ लिया और सदाशिव ने ढेर सारी फिल्में साइन की। उन्होंने हास्य तथा चरित्र भूमिकाएं भी निभाईं। इनमें से कई फिल्मों में वे महत्वहीन रोल में भी नजर आएं।
सदाशिव ने खलनायक के रूप में कई यादगार भूमिकाएं की और उस दौर के सुपरस्टार्स से टक्कर लेते नजर आए। 'हुकूमत' (1987) में उन्होंने धर्मेन्द्र से टक्कर ली। 1986 में प्रदर्शित फिल्म आखिरी रास्ता में उन्होंने अमिताभ बच्चन के लिए मुश्किलें पैदा की। आखिरी रास्ता देखने के बाद कई दर्शक उनसे नफरत करने लगे थे।
खतरों के खिलाड़ी (1988), सच्चे का बोलबाला (1989), ईश्वर (1989), एलान-ए-जंग (1989), वीरू दादा (1990), फरिश्ते (1991), इज्जत (1991) जैसी सफल फिल्मों का वे हिस्सा बने। 1991 में आई प्रदर्शित 'सड़क' में सदाशिव अमरापुरकर के करियर की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। उन्होंने एक किन्नर का रोल निभाया जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। इस रोल के लिए उन्हें फिल्मफेअर पुरस्कार भी मिला।
सन् 2000 तक सदाशिव फिल्मों में काफी व्यस्त रहे। उन्होंने कई हिंदी फिल्मों के अलावा मराठी, बंगाली और उड़िया फिल्मों में अभिनय के रंग बिखेरे।
बाद में उन्होंने अभिनय से दूरी बना ली और दो वर्ष तक अमेरिका में रहे। इस दौरान उन्होंने काम नहीं किया। टीवी धारावाहिक 'शोभा सोमनाथ की' के जरिये उन्होंने अभिनय की दुनिया में वापसी की। श्याम बेनेगल के धारावाहिक 'राज से स्वराज' तक में उन्होंने लोकमान्य तिलक का किरदार निभाया। बेनेगल के धारावाहिक 'भारत एक खोज' में उन्होंने ज्योतिबा फुले का रोल निभाया। बड़े परदे पर अंतिम बार वे 'बॉम्बे टॉकीज' (2013) में दिबाकर बैनर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म में दिखाई दिए। यह रोल उन्होंने अपनी बेटी के कहने पर किया था।
फेफड़ों के इंफेक्शन के कारण कुछ समय वे अस्पताल में भर्ती रहे और 3 नवंबर 2014 को उन्होंने अंतिम सांस ली।