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सुधा मल्होत्रा : कश्ती का खामोश सफर

हमें फॉलो करें सुधा मल्होत्रा : कश्ती का खामोश सफर

समय ताम्रकर

फिल्म-संगीत के अधिकांश श्रोताओं के लिए पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा का नाम अनजाना जैसा लगता है, लेकिन फिल्म की कव्वालियों में जिनकी गहरी दिलचस्पी है, वे सुधा मल्होत्रा के निश्चित तौर पर प्रशंसक हैं। ग्रामोफोन कम्पनियों की ऑडियो-डीवीडीज में सुधा इन्हीं कव्वालियों के कारण आज भी मौजूद हैं। याद कीजिए फिल्म बरसात की रात की यह कव्वाली- निगाहें नाज के मारों का हाल क्या होगा। इसे मशहूर कव्वाल शंकर-शंभू के साथ सुधा ने गया था और साथ में आशा भोसले भी थी। इसी फिल्म में ना तो कारवां की तलाश है ना हमसफर की तलाश है, ये इश्क-इश्क है इश्क-इश्क में संगीतकार रोशन ने अपने आर्केस्ट्रा का इतना संजीदा उपयोग किया है कि दशकों बीत जाने के बाद भी ये कव्वालियाँ सुनी जाती हैं। यही वजह है कि गायिका सुधा मल्होत्रा और संगीतकार रोशन आज भी साथ-साथ याद किए जाते हैं। 
 
छः दूने बारह
30 नवम्बर 1936 को जन्मी सुधा मल्होत्रा छः साल की उम्र में पहली बार स्टेज पर प्रस्तुत हुई थीं। यह स्कूली दिनों की बात है। एक बार हिम्मत आ जाने के बाद वे लगातार मंच पर गाती रही। इस विषय में उनके माता-पिता ने उनकी भरपूर मदद की थी। बचपन में सुधा की गीत-संगीत में दिलचस्पी देख माता-पिता ने उसे प्रोत्साहित किया। वह घर पर नूरजहाँ तथा कानन बाला के गीतों को हूबहू गाकर सुना देती थीं। उन्हें शास्त्रीय गायन सिखाने के लिए एक ट्यूटर रखा गया। धीरे-धीरे वे ऑल इण्डिया रेडियो लाहौर पर अपनी गायकी का हुनर प्रस्तुत करने लगी। संगीतकार गुलाम हैदर ने सुधा की आवाज को पसंद किया था। वे उसे मौका देते, इसके पहले ही भारत-पाक का विभाजन हो गया। गुलाम हैदर पाकिस्तान चले गए। सुधा को आगे बढ़ाने के लिए संगीतकार अनिल बिस्वास आगे आए। उन्होंने फिल्म आरजू (1950) में उन्हें अवसर दिया। सुधा ने पहला गाना गाया- मिला गए नैन। इस समय उनकी उम्र सिर्फ बारह साल की थी। 
 
तुम मुझे भूल भी जाओ....
कभी-कभी व्यक्ति के जीवन के आँगन में बारिश की तरह अवसरों की बरसात होती है। सुधा के साथ भी ऐसा हुआ। अनिल बिस्वास के बहनोई मशहूर बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष ने सुधा को फिल्म आंदोलन में गाने का निमंत्रण दिया। उन्होंने वंदे मातरम गीत गाया। सहगायक थे मन्ना डे और पारुल घोष। पचास के दशक में सुधा ने लगातार दर्जनों फिल्मों में दर्जनों गाने गाए। उस दौर के तमाम संगीतकारों ने उनकी क्लासिक-बेस आवाज के कारण उन्हें मौके भी खूब दिए। सुधा की गायिकी की दो विशेषताओं का उल्लेख करना जरूरी है। पहली है उच्चारण की स्पष्टता। दूसरे शास्त्रीय प्रशिक्षण मिलने से आवाज में लोच और मधुरता का अनोखा मेल श्रोताओं को सुनने को मिला। इस दौर के चंद उम्दा गानों का जिक्र करना सुधा की गायिकी के साथ न्याय होगा। कैसे कहूँ मन की बात (धूल का फूल), तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक है तुमको (मुकेश के साथ फिल्म दीदी), ओ रूक जा रूक जा रूक जा (चंगेज खान), गम की बदल में चमकता (रफी के साथ कल हमारा है), सलाम-ए-हसरत कुबूल कर लो (बाबर) जैसे गाने मशहूर हुए। 
 
घर बसा के देख लिया
एक साक्षात्कार में सुधा ने अफसोस करते कहा था कि उनका जन्म पन्द्रह-बीस साल बाद होना था। उनका जन्म उस दौर में हआ था जब बाली उम्र में शादी करने का रिवाज था। माता-पिता के दबाव से 1960 में उन्होंने शादी कर घर बसा लिया। जब गायकी का करियर शीर्ष पर चल रहा था, ऐसे में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने से जवाबदारियाँ बढ़ गईं। बच्चों की परवरिश पर ध्यान देने से पार्श्वगायन पीछे छूटता चला गया। पार्श्व गायन के क्षेत्र में नए लोग, नई आवाजें और नए समीकरण जमने से वे दूर होती चली गईं। सुधा को लता की आवाज बेहद पसंद रही है। वे लता के कई गानों को दोबारा गाने की इच्छुक भी रही हैं। मसलन, आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे, रसिक बलमा और वो जो मिलते थे कभी। लता के गीत एक म्यूजिक कंपनी के कारण अनुराधा पौड़वाल को गाने को मिले और सुधा सिसक कर रह गईं। 
 
चौबीस घंटे रिकॉर्डिंग 
बहुत कम लोगों को यह जानकारी है कि तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है मुझको गाने की धुन सुधा ने तैयार की थी। फिल्म दीदी के इस गीत के संगीतकार एन. दत्ता थे। रिकॉर्डिंग के दिन वे अचानक बीमार हो गए। उन्होंने सुधा को ट्राय करने की अनुमति दी। बात बन गई और वे गायकी के साथ कम्पोजर भी बन गईं। 
 
ऐसा ही एक और वाकया है जिसे सुधा ने खास मौकों पर अपने प्रशंसकों के साथ शेयर किया है। फिल्म बरसात की रात की कव्वाली 'ना तो कारवां की तलाश है' की रिकॉर्डिंग होना थी। रफी, आशा, एस.डी. बातिश और कुल नौ लोगों के लिए यह चैलेंज की बात थी कि कम समय में उन्हें यह गीत तैयार करना था। बीस से अधिक घंटों तक रिहर्सल चलती रही और चौबीस घंटे बाद तमाम लोग फूल एंड फायनल टेक के बाद ही स्टुडियो से बाहर निकले, लेकिन सबने खूब एंजॉय किया था। 
 
सुधा मल्होत्रा का एक बेटा है। उसकी संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं है। सुधा का मानना है कि आज की जनरेशन म्युजिक के बजाय डांस को ज्यादा पसंद करती है।  सुधा ने फिल्मों में आखिरी बार राजकपूर की फिल्म प्रेम रोग में पार्श्वगायन किया था- ये प्यार था या कुछ और था। उनके कुछ प्राइवेट एलबम भी जारी हुए। आज के श्रोताओं के लिए सुधा मल्होत्रा एक भूला-बिसरा नाम है। 
 
सुधा के कुछ और लोकप्रिय गीत
* नाम मैं धन चाहूँ (गीता दत्त के साथ फिल्म काला बाजार)
* दर्शन दो घनश्याम नाथ (हेमंत-मन्नाडे, नरसी भगत)
* मालिक तेरे जहाँ में (अब दिल्ली दूर नहीं)
* आवाज दे रहा है आसमान से (गौहर)
* ये हाथ अपनी दौलत है (मासूम)
* कश्ती का खामोश सफर है (गर्लफ्रेंड)
* कौन रंग मूंगवा (हीरा मोती)

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