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अब हीरो भी हुआ 'इंसान'

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चाहे भरतमुनि ने अपने नाट्‌यशास्त्र में नायकों के कितने ही रूप बताए हों, लेकिन हमारी इंडस्ट्री में नायक की परिभाषा दशकों से एक ही-सी थी। हमारा हीरो बहुत मायनों में 'राम' की तरह का होगा... पूर्ण और आदर्श पुरुष।

यहाँ कृष्ण की तरह की पूर्णता शायद हिन्दी का दर्शक नहीं पचा पाता था, इसलिए हीरो का किरदार हर बार अलग-अलग तरह से राम के चरित्र के आसपास ही बुना जाता रहा है। सुदर्शन, शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ, बलवान, बुद्धिमान, चरित्रवान, आस्थावान, विश्वासयोग्य, सद्‌चरित्र, पहले तो गंभीर ही होगा (सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं टाइप) और यदि मजाकिया होगा तो भी बड़े सलीके से मजाक करेगा (किसी को चोट नहीं पहुँचे, इस बात का हमेशा खयाल रखेगा), संवेदनशील, हीरोइन के लिए भी परफेक्ट होगा (कद में, दिखने में, सलीके में, सभ्यता में, जानकारी में, पढ़ाई में)।

वो दुखी भी होगा तो किसी भी हालत में अपना दुख जाहिर नहीं करता है, हर समस्या का हल होता है जिसके पास और सबकी परवाह करता है और जहाँ जाता है वहाँ केंद्र में ही होता रहा था, आखिर तो हीरो है वह।

यदि हीरोइन को धोखा भी दे रहा है तो जरूर उसकी कोई मजबूरी होगी। यदि चोरी या बेईमानी कर रहा है तो जरूर उसकी माँ का इलाज करवाना होगा या फिर बहन की शादी में दहेज का इंतजाम करना होगा। झूठ बोलने के पीछे भी ऐसा ही कोई-न-कोई कारण जरूर होता होगा।

अव्वल तो वह एकदम हृष्ट-पुष्ट ही होगा, लेकिन यदि कभी बीमार भी होगा तो एक तो बुखार से ज्यादा उसकी कोई बीमारी नहीं होगी और यदि कोई बड़ी बीमारी होगी तो या तो वह ठीक होगी और हीरो एकदम चंगा हो जाएगा।

हाँ, यदि फिल्म ट्रेजेडी ही होगी तो फिर बीमारी का रूप जानलेवा होगा... मतलब अंत में हीरो को मरना ही है। पहले तो हीरो में कोई मानसिक या भावनात्मक कमी होती ही नहीं है। फिल्म के बीच में यदि कहीं उसमें कोई कमी दिखाना होती है तो वो भी किसी हादसे की वजह से होती है और आखिर में उसे ठीक होना ही होता है।

हमारा हीरो कभी पिटता नहीं है, कभी हारता नहीं है। दुश्मन कितना भी ताकतवर, शातिर और होशियार होगा, उसे किसी भी कीमत पर न हरा सकेगा, न खरीद सकेगा और न ही झुका सकेगा। यदि कहीं उसमें भावनात्मक या चारित्रिक कमजोरी होती भी है तो एक गहरे अपराध-बोध के साथ।

बेईमानी तो खैर हीरो कर ही नहीं सकता है, यदि वो धोखा दे भी रहा होता है तो उसके पीछे जरूर किसी न किसी तरह की कोई गंभीर किस्म की मजबूरी हुआ करती थी।

तो हीरो अपने 'टिपिकल अर्थ' में हीरो हुआ करता था, तो जाहिर है कहानी में भी एकरसता ही हुआ करती थी। अब 'मदर इंडिया' में सुनील दत्त के किरदार को हीरो नहीं कहा जाता है, उसे तो विलेन ही कहा जाता है। चाहे सुनील दत्त हिन्दी फिल्मों के स्टार रहे हों, लेकिन फिल्म में उनका किरदार निगेटिव ही रहा, वजह जो भी रही।

इन दिनों हिन्दी फिल्मों के हीरो के किरदार में खासी 'गिरावट' देखने को मिली है। उसे पता नहीं कितनी तरह-तरह की मानसिक और शारीरिक व्याधियाँ घेरे रहती हैं। वो चोरी भी करता है, धोखा भी देता है और फ्लर्ट भी करता है (सच्ची-मुच्ची वाला)। ऐसा नहीं कि सोचा तो फ्लर्ट करने का था, लेकिन क्या करें कमबख्त प्यार ही हो गया।

वो दुखी भी होता है... दुख में रोता भी है, सबके सामने, गुबार भी निकालता है... बेकाबू होकर हिंसक भी हो सकता है। बीमार भी होता है। बीमारी भी ऐसी कि उस हीरो से पहले दर्शकों ने कभी देखी ना सुनी... एकदम रेयर!

वो पूरी तबीयत से बेईमानी भी करता है और इस बात की भी पूरी कोशिश करता है कि किसी को उसकी बेईमानी की हवा भी न लगे। वो खरीदा भी जा सकता है और हराया भी...। वो बेकार और लक्ष्यहीन भी होता है, उसे अपनी बेकारी पर कोई अफसोस भी नहीं होता है, वो हमेशा अपनी बेकारी की दयनीयता अपने चेहरे पर लेकर भी नहीं घूमता है।

वो बेईमानी करता है और उसे उसका कोई अफसोस या अपराध-बोध भी नहीं होता है, बल्कि अपनी बेईमानी को वो तमगे की तरह प्रदर्शित करता है जैसे 'दबंग' में चुलबुल पांडे...। उसने एक गर्लफ्रेंड व्रत भी धारण नहीं किया हुआ होता है और यदि उसकी प्रेमिका की शादी हो गई हो तब भी वह उसकी ख्वाहिश रखता है, चाहे हीरोइन कहती रहे कि पराई हूँ पराई मेरी आरजू न कर...। जैसे कि 'रॉकस्टार' में रणबीर कपूर अपनी शादीशुदा हीरोइन को साथ लिए घूमता है।

अब हिन्दी फिल्म का हीरो सुपर ह्यूमन बीइंग की बजाय ह्यूमन बीइंग हो गया है। चूँकि वो भी इंसान ही है, इसलिए वो बीमार भी होता है, अपाहिज भी, उसका भी दिल टूटता है, ईमान कमजोर होता और लालसा जागती है। वो प्यार में कंफ्यूज भी होता है और जीवन में असफल भी...। असफलता पर आँसू भी बहाता है और आक्रोश भी व्यक्त करता है।

अब ये माना जाने लगा है कि हीरो होने के लिए सुपर ह्यूमन बीइंग होना जरूरी नहीं है। तभी तो रितिक रोशन ने 'कोई मिल गया' में विशेष बच्चे की और 'गुज़ारिश' में क्वाड्रप्लिजिक (गर्दन के नीचे पूरे शरीर का पूरा पक्षाघात) के मरीज की भूमिका निभाई।

'पा' में प्रोजेरिया के 13 साल के मरीज की भूमिका अमिताभ ने की तो आमिर खान 'गजनी' में शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस के मरीज दिखाए गए। अपनी आने वाली फिल्म 'बर्फी' में रणबीर कपूर ने बधिर की भूमिका की है तो शाहरुख खान ने 'माय नेम इज खान' में एस्परजर्स सिंड्रोम के पेशेंट का रोल किया है।

कहने का मतलब यह है कि अब हीरो भी सामान्य इंसान है, जिसे रोग, शोक, दुख सब कुछ होता है। फिल्मों में अब काले-सफेद किरदार नहीं होते हैं, एक ही किरदार अलग-अलग समय में अलग-अलग रंग अख्तियार करता है, कभी वो ग्रे भी हो जाता है।

अपनी बहुचर्चित फिल्म 'रॉकस्टार' में रणबीर कपूर ने एक ऐसे भोले-भाले युवक की भूमिका की है, जो पूरी तरह से पारदर्शी है। प्यार के एहसास तक पहुँचने से पहले ही हीरोइन की शादी हो जाती है। हीरोइन की शादी के बाद वो सफल होता है, लेकिन प्यार को न पाने की असफलता को संभाल नहीं पाता है। मौके-बे-मौके वो हिंसक हो उठता है, उसके अंदर का दर्द आक्रोश बनकर निकलता रहता है। वो शादीशुदा हीरोइन को भी पाना चाहता है और पाकर उसे कोई अपराध-बोध भी नहीं होता है।

इसी तरह 'चक दे इंडिया' में शाहरुख का किरदार एक असफल गोलकीपर होता है, पूरी तरह से हारा हुआ। 'वेकअप सिड' में रणबीर कपूर पूरी तरह से लक्ष्यहीन युवा है... वो एकेडमिक्स में असफल है और नहीं जानता है कि क्या करना चाहता है। इसी तरह 'राजनीति' में भी रणबीर की भूमिका वैसी तो कतई नहीं है, जैसी एक हीरो की हुआ करती है।

इस लिहाज से हिन्दी फिल्मों के हीरो में बड़ा बदलाव आया है। वो अब संघर्ष करता है हर चीज से, अपने स्वास्थ्य, मानसिक कमजोरी, परिस्थितियों, असफलताओं से कई बार जीतता है और कई बार हार भी जाता है। वो रोता भी है, दुख भी मनाता है। चूँकि वो भी आम इंसान होता है, इसलिए सुख-दुख, सफलता-असफलता, जीवन-मरण सब कुछ उसके साथ भी चलता है।

अब ऐसा भी नहीं होता कि साहब हीरो है तो मर नहीं सकता और यदि मर गया तो फिर हीरोइन का क्या होगा? या फिर हीरोइन की शादी हो गई तो फिर हीरो का क्या होगा? क्योंकि अब कहानी में भी कहीं-न-कहीं जीवन की हकीकत का सूत्र होता है, इसलिए भी हीरो आम इंसान हो पाया है। उसके लिए भी जीवन आप हमारी तरह ही दुख-सुख के दो किनारों के बीच ही बहता है और इसी के बीच ही है कहानी...। चाहे वो फिल्मी हो या फिर हमारी...।

- राधिका खंडेलवाल


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