कमाल अमरोही की ख्याति ऐसे फिल्मकार के रूप में है, जो अपने मिजाज के अनुसार ही काम करते थे। वे अपनी गति से फिल्में बनाते थे और उनकी फिल्में भी अपनी ही गति से चलती थीं। अपने लंबे करियर में उन्होंने बतौर निर्देशक महज चार फिल्में बनाईं : 'महल', 'दायरा', 'पाकीजा' और 'रजिया सुलतान'।
इनमें 'पाकीजा' बेशक उनकी सबसे ख्यात फिल्म है, बल्कि कहना चाहिए कि उनकी पहचान है। इसे उन्होंने 1956 में अपनी तीसरी पत्नी मीना कुमारी के साथ बनाना शुरू किया था, लेकिन 1964 में जब दोनों का अलगाव हुआ, तो फिल्म भी रुक गई।
शुभचिंतकों के कहने पर दोनों 'पाकीजा' पूरी करने के लिए फिर साथ आए और अंततः 1972 में यह रिलीज हुई। रिलीज के चंद दिन बाद ही मीना कुमारी चल बसीं और फ्लॉप घोषित हो चुकी फिल्म देखते ही देखते सुपरहिट हो गई।
'पाकीजा' नवाबी शानो-शौकत के अतिरंजित चित्रण के बीच गहन रूमानियत में डूबी दो पीढ़ियों की संगीतमय प्रेम कहानी थी। गुलाम मोहम्मद के अद्भुत संगीत के बिना 'पाकीजा' की कल्पना करना असंभव है। उनके निधन के बाद नौशाद ने फिल्म का पार्श्व संगीत दिया।
मीना कुमारी की ख्याति 'ट्रेजेडी क्वीन' के रूप में थी और उनकी इस सबसे मशहूर फिल्म में भी उनकी बोलती आँखों से छलकता दर्द हावी है। वे तवायफ साहिब जान के रोल में हैं, जो मानती हैं कि हर तवायफ एक जिंदा लाश होती है। पिंजरे में कैद पंछी और पेड़ पर आ फँसी एक कटी-फटी पतंग में उसे अपने जीवन का अक्स दिखता है।
फिर एक दिन रेल में सफर कर रही साहिब जान पर एक नौजवान सलीम (राजकुमार) की नजर पड़ती है। सलीम गलती से उस कम्पार्टमेंट में घुस आया है और सोई हुई साहिब जान के पैर देखकर मंत्रमुग्ध है। अगले स्टेशन पर उतरने से पहले वह उसके कदमों में एक पर्ची छोड़ जाता है, जिस पर लिखा है,'आपके पाँव देखे, बहुत हसीं हैं। इन्हें जमीं पे मत उतारिएगा, मैले हो जाएँगे...।'
प्रेम रहित संसार में पली-बढ़ी साहिब जान के लिए यह पर्ची उम्मीद की किरण लेकर आती है कि कोई है जो उससे भी प्यार कर सकता है। इसके बाद निर्देशक ट्रेन की सीटी को उस सफर और उस अजनबी की याद तथा प्यार की उम्मीद के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
यह सीटी हर बार नायिका को ट्रेन वाले अजनबी की याद दिलाती है और आस बँधाती है कि शायद इन कोठों की कैद से परे भी उसके लिए कोई जीवन संभव है, कि शायद लाश बनी साहिब जान भी जी उठ सकती है...।
फिल्म के यादगार गीत 'चलते-चलते यूँ ही कोई मिल गया था...' के अंत में भी ट्रेन की सीटी बजकर विरह की मारी नायिका के चेहरे पर आशा की हल्की-सी मुस्कुराहट ला देती है। अनेक प्रतीकों से सजी 'पाकीजा' में ट्रेन की सीटी का यह प्रतीक शायद सबसे सशक्त था।