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अजंता की बुलबुल के साथ नच ले

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हमें फॉलो करें माधुरी दीक्षित आजा नच ले

समय ताम्रकर

निर्माता : आदित्य चोपड़ा
निर्देशक : अनिल मेहता
संगीत : सलीम-सुलेमान
कलाकार : माधुरी दीक्षित, कोंकणा सेन, कुणाल कपूर, रघुबीर यादव, अक्षय खन्ना, दिव्या दत्ता, विनय पाठक, रणवीर शौरी, अखिलेन्द्र मिश्रा, जुगल हंसराज
रेटिंग : 3/5

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यशराज फिल्म्स की ‘आजा नच ले’ एक फील गुड मूवी है। जिसके सारे किरदारों को अंत में खुशी मिलती है। बुरे चरि‍त्रों का हृदय परिवर्तन हो जाता है और भले लोगों को संघर्ष में सफलता। नवम्बर 2007 की यह दूसरी फिल्म है जिसमें ऑपेरा शैली को महत्व दिया गया है। इसके पहले दर्शक दीपावली पर संजय लीला भंसाली की ‘साँवरिया’ देख चुके हैं।

फिल्म की कहानी न्यूयार्क की मॉडर्न कोरियोग्राफर दीया से अँगरेजी स्टाइल के साँग-डाँस से शुरू होकर भारत के शामली नामक एक छोटे शहर की दहलीज तक पहुँचती है, जहाँ दीया के नृत्य गुरु अपनी आखरी साँसें लेकर अजंता थिएटर को जीवित बनाए रखने की अपील करते हैं। दीया को उनका सपना पूरा करना है, लेकिन उसकी राह आसान नहीं है।

उसका मुकाबला स्थानीय सांसद और बिल्डर से है। इसके अलावा दीया के खिलाफ पूरा शामली भी है, क्योंकि ग्यारह वर्ष पहले वह इसी जगह से अपनी शादी के ऐन पूर्व एक अँग्रेज के साथ भाग गई थी। शामली के निवासियों की निगाह में दीया का चरित्र ठीक नहीं था। दीया वापस आकर अजंता थिएटर को पुनर्जीवित करती है और स्थानीय लोगों की मदद से लड़ाई जीतती है।

फिल्म की शुरूआत थोड़ी कमजोर है, क्योंकि गति को बहुत तेज रखा गया है और इससे कहानी सेट नहीं हो पाती। दीया न्यूयार्क से वापस आती है और फौरन लड़ाई शुरू कर देती है। वह जैसा चाहती है, सब कुछ उसके अनुसार होता है। उसके पास पैसा कहाँ से आता है? यह बातें अखरती हैं, लेकिन बाद में धीरे-धीरे फिल्म अपनी पकड़ बना लेती है। कमियों के बावजूद भी रोचकता बरकरार रहती है और दर्शक फिल्म से जुड़ा रहता है।

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फिल्म में आज की राजनीति को बिजनेस के साथ जोड़ कर पेश किया गया है, जहाँ शॉपिंग-मॉल की संस्कृति कस्बों की कला-संस्कृति को निगलकर उपभोक्ता एवं बाजारवाद को बढ़ावा दे रही है। फिल्म नारी प्रधान है, लेकिन नारी की महत्ता का बखान फिजूल के संवादों या दृश्यों के माध्यम से नहीं दिखाया गया है। एक तलाकशुदा महिला केवल अपने दम पर लड़ाई लड़ती है और जीतती है। वहीं इस जीत की हीरो है इसलिए पुरुष नायक की कमी फिल्म में कहीं भी महसूस नहीं होती।

अजंता थिएटर को बचाने के लिए दीया एक नृत्य नाटिका ‘लैला मजनू’ तैयार करती है। यह नाटिका फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण है। बीस मिनट की यह नाटिका बेहद उम्दा तरीके से लिखी गई है और दर्शक इसे देखते समय खो जाता है। इसमें लैला-मजनू की प्यार में दीवानगी उभरकर सामने आती है।

सिनेमाटोग्राफर से निर्देशक बने अनिल मेहता ने फिल्म को फील गुड और मस्ती भरे मूड में पेश किया है। भले ही यह अनिल की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म हो, लेकिन उनके काम में परिपक्वता झलकती है।

फिल्म की पटकथा और संवाद जयदीप साहनी ने लिखे हैं। जयदीप के पिछले काम को देखते हुए पटकथा थोड़ी कमजोर लगती है, लेकिन उनके संवाद चुटीले और ताजगी भरे हैं। उदाहरण के लिए ‘कला को शहर की जरूरत नहीं होती, लेकिन शहर को कला की जरूरत होती है’, ‘आधी मंजिल तो तय कर ली है, बची आधी तो मैं नींद में भी तय कर सकती हूँ’, ‘चाँद जैसे चेहरे पर बालों की लट मैगी नूडल्स जैसी लटका रखी है’।

फिल्म के गीत एवं नृत्य संयोजन में वैभवी मर्चेण्ट ने कमाल कर दिखाया है और अपनी कुशलता की छाप छोड़ी है। फिल्म के गीतों में उम्दा शब्दों का चयन किया गया है। ‘आजा नच ले’, ‘इश्क हुआ’, ‘ओ रे पिया’ और ‘कोई पत्थर से न मारे’ अच्छे बन पड़े हैं। सलीम-सुलेमान का संगीत फिल्म के मूड को सूट करता है।

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माधुरी दीक्षित की ‘देवदास’ के बाद वापसी सुकून देने वाली है। इस फिल्म में उनका चरित्र उनकी उम्र से मेल खाता है। पूरी फिल्म का भार माधुरी ने अपने कंधों पर बखूबी उठाया है। उम्र का हल्का सा असर माधुरी की सुंदरता पर पड़ा है, लेकिन माधुरी का मैजिक और स्क्रीन प्रजेंस जबरदस्त बना हुआ है। कोंकणा सेन, रघुबीर यादव, कुणाल कपूर, अखिलेन्द्र मिश्रा, रणवीर शौरी, इरफान खान, दर्शन जरीवाला मँजे हुए कलाकार हैं। छोटी भूमिका में अक्षय खन्ना भी अच्छे लगते हैं।

थोड़ी कमियों के बावजूद फिल्म अच्छी लगती है और एक बार देखने में कोई बुराई नहीं है।

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