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इश्किया : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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निर्माता : विशाल भारद्वाज, रमन मारू
निर्देशक : अभिषेक चौबे
संगीत : विशाल भारद्वाज
कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी, विद्या बालन, सलमान शाहिद
केवल वयस्कों के लिए * एक घंटा 57 मिनट
रेटिंग : 3/5

‘इश्किया’ देखते समय ‘ओंकारा’ की याद आना स्वाभाविक है। ‘ओंकारा’ की ही तरह इस फिल्म के किरदार के मन में क्या चल रहा है जानना कठिन होता है। लालच, प्यार और स्वार्थ के मायने उनके लिए हर पल बदलते रहते हैं। निर्देशक अभिषेक चौबे लंबे समय से विशाल भारद्वाज के साथ जुड़े हुए हैं इसलिए उन पर विशाल का असर होना स्वाभाविक है। हालाँकि ‘इश्किया’ में ‘ओंकारा’ जैसी धार नहीं है, लेकिन अभिषेक का प्रयास सराहनीय है।

फिल्म शुरू होती है कृष्णा (विद्या बालन) और उसके पति के अंतरंग दृश्यों से। कुछ ही पलों में एक विस्फोट होता है और कृष्णा का पति मारा जाता है। इधर खालूजान (नसीरुद्दीन शाह) का मुँहबोला जीजा मुश्ताक उसे और बब्बन (अरशद वारसी) को उनकी एक गलती के लिए जिंदा दफनाना चाहता है। मौका मिलते ही दोनों बदमाश भाग निकलते हैं और मुश्ताक के लाखों रुपए भी ले उड़ते हैं।

मुश्ताक से छिपते हुए वे अपने दोस्त (कृष्णा के पति) के घर रूकने का फैसला करते हैं जहाँ उनकी मुलाकात उसकी विधवा से होता है। उनके पैरों के तले की जमीन तब खिसक जाती है जब कृष्णा के घर छिपाए पैसे चोरी हो जाते हैं। मुश्ताक पीछा करते हुए उन्हें पकड़ लेता है और रुपए लौटाने के लिए कुछ दिनों की मोहलत देता है।

कृष्णा के यहाँ रहते हुए दोनों को उससे इश्क हो जाता है। कृष्णा रोमांस खालूजान से करती है और संबंध बब्बन से बनाती है। कृष्णा को भी पैसों की जरूरत है और उसका नया रूप सामने आता है। तीनों मिलकर एक अमीर व्यापारी का अपहरण करते हैं।

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कृष्णा को लेकर खालूजान और बब्बन की टकराहट, पैसों को लेकर सभी का लालच और कृष्णा के अतीत के सामने आने से कई विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे हर किरदार की सोच और भावनाओं में परिवर्तन देखने को मिलता है।

फिल्म आरंभ होने के दस मिनट बाद आप पूर्वी उत्तर प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि का हिस्सा बन जाते हैं। शहर की चकाचौंध और आधुनिकता से यह फिल्म दूर ले जाती है। देहाती किरदार, उनकी भाषा और रहन-सहन को निर्देशक अभिषेक चौबे ने बखूबी फिल्माया और ड्रामे को जटिलता के साथ पेश किया।

साथ ही सीमा के नजदीक चलने वाली हलचल को भी उन्होंने दिखाया है कि हथियार कितनी आसानी से उपलब्ध हैं। जातिवाद किस तरह चरम पर पहुँच गया है उसे एक संवाद से दर्शाया गया है। खालूजान को बब्बन कहता है ‘यह जगह बहुत खतरनाक है। अपने यहाँ तो सिर्फ शिया और सुन्नी हैं यहाँ तो यादव, पांडे, जाट हर किसी ने अपनी फौज बना ली है।‘ हालाँकि उन्होंने इन विषयों को हल्के से छूआ है।

फिल्म का स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि किरदारों के मन में क्या चल रहा है या आगे क्या होने वाला है, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इस वजह से फिल्म दर्शकों को बाँधकर रखती है। क्लाइमैक्स के थोड़ा पहले कसावट कमजोर पड़ जाती है। ऐसा लगता है कि जल्दबाजी में काम किया गया है। इस हिस्से में फिल्म का संपादन भी ठीक नहीं है और कनफ्यूजन पैदा होता है।

फिल्म का संगीत बेहतरीन है और यह भी फिल्म देखने का एक कारण है। गुलजार और विशाल की जोड़ी ने ‘इब्ने बतूता’ और ‘दिल बच्चा है’ जैसे बेहतरीन गीत दिए हैं। मोहन कृष्णा की सिनेमेटोग्राफी शानदार है।

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अभिनय में फिल्म के तीनों मुख्य कलाकारों ने बेजोड़ अभिनय किया है। नसीरुद्दीन शाह कभी खराब अभिनय कर ही नहीं सकते हैं। उनकी संगति का असर अरशद वारसी पर भी हुआ और नसीर के साथ उनकी जुगलबंदी खूब जमी। निर्देशक ने उन पर नियंत्रण रखा और उन्होंने ओवरएक्टिंग नहीं की। ‘पा’ के बाद विद्या बालन ने एक बार फिर अपना रंग जमाया। उनके चरित्र में कई शेड्स हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है।

अगर रूटीन मसाला फिल्मों से हटकर आप कुछ देखना चाहते हैं तो ‘इश्किया’ देखी जा सकती है।

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