यहाँ पर लकी की मजबूरी कोई ऐसी नहीं है कि वह चोरी नहीं करे तो भूखा मर जाए। वह भौतिक सुविधाएँ पाना चाहता है, इसलिए ‘बंटी और बबली’ की तरह चोरियाँ करता है। कहानी में कोई खास उतार-चढ़ाव नहीं है, इसलिए थोड़ी देर बाद फिल्म ठहरी हुई लगती है क्योंकि दृश्यों का दोहराव शुरू हो जाता है। फिर भी निर्देशक दिबाकर बैनर्जी ने इस कहानी को दिलचस्प तरीके से परदे पर उतारने की कोशिश की है। खासकर किशोर लकी के कुछ दृश्य शानदार हैं। एक चोर का भी घर होता है, रिश्ते होते हैं, गर्लफ्रेंड होती है और चोरियों की वजह से इन रिश्तों पर क्या असर होता है, इसे सतही तौर पर दिखाया गया है। लकी समाज के लिए चोर है, लेकिन उससे बड़े भी चोर हैं जिन्हें समाज में इज्जत के साथ देखा जाता है। ऐसा ही एक किस्सा दिबाकर बैनर्जी ने मि. हाँडा और लकी के बीच रखा है, जिसमें हाँडा, लकी का ही माल उड़ा लेते हैं। पूरी फिल्म पर दिल्ली का रंग चढ़ा हुआ है। दिल्ली की तंग गलियों और आलीशान कॉलोनियों को बखूबी दिखाया गया है। फिल्म के किरदार बिलकुल असल जिंदगी से उठाए गए लगते हैं।
अभय देओल ने लकी का किरदार बखूबी निभाया है। पूरे आत्मविश्वास और ऊर्जा के साथ लकी के किरदार को उन्होंने परदे पर साकार किया है। नीतू चन्द्रा ने साहस के साथ बिना मेकअप के कैमरे का सामना किया। परेश रावल ने तीन किरदार निभाए हैं, लेकिन वे रंग में नहीं दिखाई दिए। इसका दोष निर्देशक को ज्यादा है जो उनका पूरा उपयोग नहीं कर पाया। संगीत के मामले में फिल्म कमजोर है और संपादित किए जाने की भी गुंजाइश है।
कुल मिलाकर दिबाकर बैनर्जी उन उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाते जो ‘खोसला का घोसला’ के बाद उन्होंने जगाई थी।
रेटिंग : 2/5
1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्भुत