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ओस की बूँद सी ‘तारे जमीं पर’

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हमें फॉलो करें तारे जमीं पर

समय ताम्रकर

यू*18रील
निर्माता-निर्देशक : आमिर खान
गीत : प्रसून जोशी
संगीत : शंकर-अहसान लॉय
कलाकार : आमिर खान, दर्शील सफारी, टिस्का चोपड़ा, विपिन शर्मा, सचेत इंजीनियर
रेटिंग : 4/5

बच्चें ओस की बूँदों की तरह एकदम शुद्ध और पवित्र होते हैं। उन्हें कल का नागरिक कहा जाता है, लेकिन दु:ख की बात है बच्चों को अनुशासन के नाम पर तमाम बंदिशों में रहना पड़ता है। आजकल उनका बचपन गुम हो गया है। बचपन से ही उन्हें आने वाली जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार किया जाता है। हर घर से टॉपर्स और रैंकर्स तैयार करने की कोशिश की जा रही है। कोई यह नहीं सोचता कि उनके मन में क्या है? वे क्या सोचते हैं? उनके क्या विचार है?

इन्हीं सवालों और बातों को आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में उठाया है। यह कोई बच्चों के लिए बनी फिल्म नहीं है और न ही वृत्तचित्रनुमा है। फिल्म में मनोरंजन के साथ गहरे संदेश छिपे हुए हैं। बिना कहें यह फिल्म बहुत कुछ कह जाती है। हर व्यक्ति इस फिल्म के जरिए खुद अपने आपको टटोलने लगता है कि कहीं वह किसी मासूम बच्चे का बचपन तो नहीं उजाड़ रहा है।

आठ वर्षीय ईशान अवस्थी (दर्शील सफारी) का मन पढ़ाई के बजाय कुत्तों, मछलियों और पेंटिंग करने में लगता है। उसके माता-पिता चाहते हैं कि वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता। ईशान घर पर माता-पिता की डाँट खाता है और स्कूल में शिक्षकों की। कोई भी यह जानने की कोशिश नहीं करता कि ईशान पढ़ाई पर ध्यान क्यों नहीं दे रहा है। इसके बजाय वईशान को बोर्डिंग स्कूल भेज देते हैं।

खिलखिलाता ईशान वहाँ जाकर मुरझा जाता है। वह हमेशा सहमा और उदास रहने लगता है। उस पर निगाह जाती है आर्ट टीचर रामशंकर निकुंभ (आमिर खान) की। निकुंभ उसकी उदासी का पता लगाते हैं और उन्हें पता चलता है कि ईशान बहुत प्रतिभाशाली है, लेकिन डिसलेक्सिया बीमारी से पीडि़त है। उसे अक्षरों को पढ़ने में तकलीफ होती है। अपने प्यार और दुलार से निकुंभ सर ईशान के अंदर छिपी प्रतिभा को सबके सामने लाते हैं।

कहानी बेहद सरल है, जिसे आमिर खान ने बेहद प्रभावशाली तरीके से परदे पर उतारा है। पटकथा की बुनावट एकदम चुस्त है। छोटे-छोटे भावनात्मक दृश्य रखे गए हैं जो सीधे दिल को छू जाते हैं।

ईशान का स्कूल से भागकर सड़कों पर घूमना। ताजी हवा में साँस लेना। बिल्डिंग को कलर होते देखना। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों को आजादी से खेलते देख कर उदास होना। बरफ का लड्डू खाना। इन दृश्यों को देख कई लोगों को बचपन की याद ताजा हो जाएगी।

आमिर की यह फिल्म उन माता-पिता से सवाल पूछती है कि जो अपनी महत्वाकांक्षा बच्चों के नाजुक कंधों पर लादते हैं। आमिर एक संवाद बोलते हैं ‘बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षा लादना बालश्रम से भी बुरा है।‘

हर किसी को परीक्षा में पहला नंबर आना है। 95 प्रतिशत से कम नंबर लाना मानो गुनाह हो जाता है। ईशान का भाई टेनिस प्रतियोगिता के फाइनल में हार जाता है तो उसके पिता गुस्सा हो जाते हैं। अव्वल नंबर आना बुरा नहीं है, लेकिन उसके लिए मासूम बच्चों को प्रताडि़त कर उनका बचपन छिन लेना बुरा है।

सवाल तो उन माता-पिताओं से पूछना चाहिए कि क्या उन्होंने बच्चे अपने सपने पूरा करने के लिए पैदा किए हैं? क्या वे जिंदगी में जो बनना चाहते थे वो बन पाएँ? यदि नहीं बन पाएँ तो उन्हें भी कोई हक नहीं है कि वे अपनी कुंठा बच्चों पर निकाले।

क्या हम कभी ढाबों या चाय की दुकानों में काम कर रहे छोटे-छोटे बच्चों के बारे में सोचते हैं? क्या हमें यह खयाल आता है कि जो बच्चा हमें खाना परोस रहा है उसका पेट भरा हुआ है या नहीं?

अनुशासन और नियम का डंडा दिखलाकर बच्चों को डराने वाले शिक्षक अपनी जिंदगी में कितने अनुशासित हैं? वे कितने नियमों का पालन करते हैं? सभी बच्चों का दिमाग और सीखने की क्षमता एक-सी नहीं होती है। क्या सभी बच्चों को भेड़ की तरह एक ही डंडे से हांका जाना चाहिए?

बिना संवादों के जरिए ये बातें आमिर खान ने चंद मिनटों के दृश्यों से कहीं है। कहीं उपदेश या फालतू भाषण नहीं। फिल्म देखते समय हर दर्शक इस बात को महसूस करता है। हर माता-पिता और शिक्षकों को यह फिल्म देखना ही चाहिए। शायद वे बच्चों से ज्यादा प्यार करने लगेंगे। उन्हें समझने लगेंगे।

ईशान बने दर्शील सफारी इस फिल्म की जान है। विश्वास ही नहीं होता कि यह बच्चा अभिनय कर रहा है। मासूम से दिखने वाले इस बच्चे ने भय, क्रोध, उदासी और हास्य के हर भाव को अपने चेहरे से बोला है। शायद इसीलिए उसे संवाद कम दिए गए हैं।

आमिर खान मध्यांतर में आते हैं और छा जाते हैं। टिस्का चोपड़ा (ईशान की मम्मी) ने एक माँ की बैचेनी को उम्दा तरीके से पेश किया है। विपिन शर्मा (ईशान के पापा), सचेत इंजीनियर और सारे अध्यापकों का अभिनय भी अच्छा है।

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बिना तैयारी के निर्देशन के मैदान में उतरे आमिर खान ने दिखा दिया है कि फिल्म माध्यम पर उनकी समझ और पकड़ अद्‍भुत है। इस फिल्म में न फालतू का एक्शन है, न फूहड़ कॉमेडी और न अंग प्रदर्शन। इन सारे तत्वों के बिना भी एक उम्दा फिल्म बनाई जा सकती है ये आमिर ने बता दिया है। एक बच्चे की जिंदगी पर फिल्म बनाकर उन्होंने साहस का परिचय दिया है। फिल्म थोड़ी लंबी जरूर है।

प्रसून जोशी द्वारा लिखे गीत बहुत कुछ कहते हैं और परदे पर उनको देखते समय उसका प्रभाव और बढ़ जाता है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत भी अच्छा है। फिल्म की फोटोग्राफी उल्लेखनीय है।

इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए। फिल्म देखने के बाद आप अपने दिल में पवित्र भावनाओं को महसूस करेंगे।

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