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चक्रव्यूह : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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बैनर : प्रकाश झा प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल मीडिया लिमिटे
निर्माता-निर्देशक : प्रकाश झा
संगीत : सलीम-सुलेमान, विजय वर्मा, संदेश शांडिल्य, शांतनु मोइत्रा, आदेश श्रीवास्तव
कलाकार : अभय देओल, अर्जुन रामपाल, ईशा गुप्ता, ओम पुरी, मनोज बाजपेयी, अंजलि पाटिल, चेतन पंडित, समीरा रेड्डी
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * सेंसर सर्टिफिकेट नंबर : डीआईएल/2/62/2012
* 2 घंटे 32 मिनट

भारत के दो सौ से अधिक जिलों में नक्सलवाद फैल चुका है और कोई दिन भी ऐसा नहीं जाता जब इस आपसी संघर्ष में भारत की धरती खून से लाल नहीं होती है। नक्सलवाद दिन पर दिन फैलता जा रहा है। कई प्रदेश इसके चपेट में हैं, लेकिन अब तक इसका कोई हल नहीं निकल पाया है। एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है जिसे भेदना मुश्किल होता जा रहा है। इस मुद्दे को लेकर प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ फिल्म बनाई है।

ठोस कहानी, शानदार अभिनय और सुलगता मुद्दा प्रकाश झा के सिनेमा की खासियत हैं और यही बातें ‘चक्रव्यूह’ में भी देखने को मिलती है। दामुल से लेकर मृत्युदण्ड तक के सिनेमा में बतौर निर्देशक प्रकाश झा का अलग अंदाज देखने को मिलता है। इन फिल्मों में आम आदमी के लिए कुछ नहीं था।

गंगाजल से प्रकाश झा ने कहानी कहने का अपना अंदाज बदला। बड़े स्टार लिए, फिल्म में मनोरंजन की गुंजाइश रखी ताकि उनकी बात ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचे। इसका सुखद परिणाम ये रहा कि प्रकाश झा की‍ फिल्मों को लेकर आम दर्शकों में भी उत्सुकता पैदा हो गई। अब तो आइटम नंबर भी झा की फिल्म में देखने को मिलते हैं।

चक्रव्यूह में पुलिस, राजनेता, पूंजीवादी और माओवादी सभी के पक्ष को रखने की कोशिश प्रकाश झा ने की है। फिल्म किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती है, लेकिन दर्शकों तक वे ये बात पहुंचाने में सफल रहे हैं कि किस तरह ये लोग अपने हित साधने में लगे हुए हैं और इनकी लड़ाई में गरीब आदिवासी पिस रहे हैं।

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एसपी आदिल खान (अर्जुन रामपाल) के जरिये पुलिस का एक अलग चेहरा नजर आता है। उसे इस बात के लिए शर्म आती है कि अब तक सरकार भारत के भीतरी इलाकों में सड़क, पानी और बिजली जैसी सुविधाएं नहीं पहुंचा पाई है। उन लोगों को बहका कर उनके आक्रोश का माओवादी गलत इस्तेमाल कर रहा है।

वह आदिवासियों के मन से माओवादियों का डर निकालना चाहता है। उसका मानना है कि बंदूक के जरिये कभी सही निर्णय नहीं किया जा सकता है। उसे अपने उन पुलिस वाले साथियों की चिंता है जो माओवादी की तलाश में जंगलों की खाक छान रहे हैं। अपने परिवार से दूर अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं।

कुछ पुलिस वालों का मानना है कि ये मिली-जुली कु‍श्ती है और सिर्फ मुर्गे लड़ाकर अपनी-अपनी रोटियां सेंकी जा रही हैं। नेता, उद्योगपतियों को बढ़ावा देकर इंडस्ट्री लगाना चाहते हैं और इसके लिए वे नक्सलियों के साथ-साथ आदिवासियों का भी अहित करने के लिए तैयार हैं।

दूसरी ओर माओवादी के अपने तर्क हैं। उनकी अपनी समानांतर सरकार और अदालत है। वे वर्षों से शोषित और उपेक्षित हैं। उनका मानना है कि ये लुटेरी सरकार है जो सिर्फ पूंजीवादियों के हित में सोचती है। जब बात से बात नहीं बनी तो उन्होंने हथियार उठा लिए। अलग-अलग किरदारों के जरिये सभी का पक्ष रखा गया है।

गंभीर मसले होने के बावजूद भी प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ को डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है। भले ही तकनीकी रूप से फिल्म स्तरीय नहीं हो, लेकिन ड्रामा बेहद मजबूत है। फिल्म बांधकर रखती है। अपनी बात कहने के लिए ऋषिकेश मुखर्जी की ‘नमक हराम’ से प्रकाश झा ने प्रेरणा ली है।

कबीर (अभय देओल) अपने दोस्त आदिल खान की मदद के लिए माओवादियों के साथ जा मिलता है और उनकी हर खबर अपने एसपी दोस्त तक पहुंचाता है, लेकिन धीरे-धीरे उसकी सोच बदल जाती है और वह भी माओवादी बन जाता है। ये बात उसके लिए दोस्ती से भी परे हो जाती है और वह आदिल पर बंदूक तानने से भी हिचकिचाता नहीं है। कबीर और आदिल के जरिये पुलिस और माओवादियों की कार्यशैली नजदीक से देखने को मिलती है।

कमियों की बात की जाए तो कबीर का तुरंत माओवादियों में शामिल होने का निर्णय लेना, उनका विश्वास जीत लेना और आदिल से जब चाहे मिल लेना या बात कर लेना थोड़ा फिल्मी है। आइटम सांग भी जरूरी नहीं था। फिल्म की लंबाई को भी नियंत्रित किया जा सकता था।

अर्जुन रामपाल का चेहरा भावहीन है, जिससे वे एक सख्त पुलिस ऑफिसर के रूप में जमते हैं। यह उनका अब तक सबसे बेहतरीन अभिनय है। यदि उम्दा अभिनेता इस रोल को निभाता तो बात ही कुछ और होती।

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कबीर के रूप में अभय देओल का अभिनय प्रशंसनीय है। अर्जुन रामपाल को गोली मारने जा रहे मनोज बाजपेयी की पीठ में गोली मारते वक्त उनके चेहरे के भाव देखने लायक हैं। जूही के रूप में अं‍जलि पाटिल ने आक्रोश को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। ईशा गुप्ता से तो प्रकाश झा भी एक्टिंग नहीं करवा पाए। मनोज बाजपेयी, ओम पुरी, कबीर बेदी, चेतन पंडित, मुरली शर्मा, किरण करमरकर ने अपने-अपने रोल में प्रभाव छोड़ा है।

चक्रव्यूह हमें सोचने पर मजबूर करती है, बताती है कि हमारे देश में एक गृहयुद्ध चल रहा है। हमारे ही लोग आमने-सामने हैं। यदि समय रहते इसका समाधान नहीं हुआ तो स्थिति विकराल हो जाएगी।

रेटिंग : 3.5/5
1- बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत

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