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चलो दिल्ली : फिल्म समीक्षा

टाइम पास सफर

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समय ताम्रकर

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बैनर : भीगी बसंती एंटरटेनमेंट, बिग डैडी प्रोडकशन्स, इरोज इंटरनेशनल ‍मीडिया लि.
निर्माता : कृषिका लुल्ला, लारा दत्ता, कविता भूपति चड्ढा
निर्देशक : शशांत शाह
संगीत : गौरव दास गुप्ता, आनंद राज आनंद, सचिन गुप्ता
कलाकार : ‍लारा दत्ता, विनय पाठक, अक्षय कुमार (मेहमान कलाकार), याना गुप्ता
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 1 घंटा 56 मिनट * 12 रील
रेटिंग : 2.5/5

चलो दिल्ली में कहानी से ज्यादा उसके मुख्य किरदार दिलचस्प हैं। मिजाज, रहन-सहन, बोलचाल, आदत कुछ भी उनमें नहीं मिलता है। मिहिका 200 करोड़ रुपए की कंपनी चलाती है। खाने में बाल निकल आए तो वह खाना छोड़ देती है।

दूसरी ओर मनु के खाने में बाल निकले तो वह यह सोचने लगता है कि यह बाल सिर का है या बगल का। करोल बाग में 10 बाय 10 की साड़ियों की दुकाने चलाने वाले इस शख्स का फलसफा है कि जिंदगी को बदल नहीं सको तो खुद को उसके अनुरूप ढाल लो। दंगा हो या पैसे खत्म हो गए हो, हर परिस्थिति में वह कहता है कोई बड़ी बात नहीं। वहीं मिहिका को छोटी-छोटी बातों में ‍भी शिकायत रहती है।

दोनों की यह भिन्नता परदे पर देखते समय अच्छी लगती है। यदि कहानी की थोड़ी मदद उन्हें मिल जाती तो फिल्म का स्तर और ऊँचा उठ जाता। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए काफी संयोग रखे गए हैं। शुरू में तो इसकी उपेक्षा की जा सकती है, लेकिन जब यह क्रम चलता रहता है तो अखरने लगता है।

मिहिका और मनु मुंबई से दिल्ली जाने के लिए प्लेन में बैठते हैं। तकनीकी खामी के कारण उन्हें जयपुर उतरना पड़ता है। वे एक टेक्सी में साथ बैठकर दिल्ली जाने के लिए निकलते हैं।

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रास्ते में टेक्सी खराब हो जाती है। ढाबे में रात गुजारते हैं। ऊँट गाड़ी में बैठकर एक छोटे-से रेलवे स्टेशन पहुँचते हैं। ट्रेन में बिना टिकट बैठते हैं क्योंकि दोनों की जेब कट जाती है।

टीसी पुलिस के सुपुर्द कर देता है। एक लोकल गुंडे की मदद से छूटते हैं। एक और होटल में रूकते हैं, लेकिन उस शहर में दंगा हो जाता है। और अंत में किसी तरह वे दिल्ली पहुँचते हैं।

निर्देशक और लेखक ने यात्रा को लंबी करने के लिए जो रूकावटें पैदा की हैं उनमें से कुछ विश्वसनीय लगती हैं तो कुछ दिमाग को जँचती नहीं हैं। ‘चलो दिल्ली’ एक रोड मूवी है और इसे देखते समय कई फिल्मों की याद आना स्वाभाविक है। इसे भी एक हॉलीवुड फिल्म से प्रेरित बताया जा रहा है और भारत में भी इस तरह की कई फिल्में बन चुकी हैं।

कुछ लोगों को ‘जब वी मेट’ की याद भी आ सकती है, जिसके दो किरदार भी परिस्थितिवश साथ में यात्रा करते हैं, लेकिन जब वी मेट में युवाओं को लुभाने के लिए रोमांस था।

‘चलो दिल्ली’ में रोमांस गायब है क्योंकि मिहिका और मनु शादीशुदा हैं और अपने-अपने लाइफ पार्टनर के साथ खुश हैं। रोमांस के न होने से भी इस फिल्म की अपील सीमित हो गई है। फिल्म के अंत को भावुकता को टच दिया गया है और इसे प्लस पाइंट माना जा सकता है।

लारा दत्ता और विनय पाठक ने अपने-अपने पात्रों की बारीकियों को पकड़ा है और बखूबी जिया है। उन्होंने स्क्रिप्ट से उठकर अभिनय किया है। छोटे से रोल में अक्षय कुमार भी हैं, जिनका खास उपयोग नहीं किया गया है। याना पर फिल्माया गया गीत अच्छा बन पड़ा है।

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शशांत शाह का निर्देशन अच्छा है, लेकिन उन्हें कहानी की ओर भी ध्यान देना था। उन्होंने यह बात दर्शाने की कोशिश की है कि मेट्रो सिटी में रहने वाले कई भारतीय ऐसे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों से परिचित नहीं हैं, लेकिन यह बात ठीक तरह से सामने नहीं आ पाई।

‘सन वाइफ आने तक और डॉटर लाइफ जाने तक साथ देती है’ तथा ‘भारत में किसी को बहनजी कह दो तो वह महिला बुरा मान जाती है’ जैसे कुछ संवाद भी सुनने को मिलते हैं।

कुछ निगेटिव पाइंट्स के बावजूद ‘चलो दिल्ली’ एक ऐसा सफर है जो आसानी से कट जाता है।

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