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जर्नी बॉम्बे टू गोवा : बेहूदा सफर

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हमें फॉलो करें जर्नी बॉम्बे टू गोवा

समय ताम्रकर

निर्माता : हुमायूँ रंगीला
निर्देशक : राज पेंडुरकर
संगीतकार : नितिन शंकर - रवि मीत
कलाकार : सुनील पाल, राजू श्रीवास्तव, विजय राज, अहसान कुरैशी, दीपक शिर्के

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चुटकुले को अगर कहानी बनाया जाए तो वह बेमजा हो जाती है। कुछ इसी तरह की बात ‘जर्नी बॉम्बे टू गोवा’ देखने के बाद दिमाग में आती है। निर्देशक राज पेंडुरकर ने ढेर सारे हास्य कलाकारों का जमावड़ा कर लिया, लेकिन इनका उपयोग कैसे करें, ये उनकी समझ में नहीं आया।

इन लोगों के पास चुटकुले तो तैयार थे, लेकिन इन चुटकुलों को प्रस्तुत करने के लिए ढंग की कहानी नहीं थी। इस बात पर ज्यादा सोचा नहीं गया और पुरानी फिल्म ‘बॉम्बे टू गोवा’ का बस वाला आइडिया नाम सहित उड़ा लिया गया।

टीवी पर प्रसारित होने वाले एक घंटे के हास्य कार्यक्रम में इन कलाकारों (?) को किसी तरह झेला जा सकता है, लेकिन ढाई घंटे की फिल्म में ये बोर करते हैं।

निर्देशक और लेखक ने अपना सारा ध्यान एक-एक पंक्ति के संवादों पर रखा है, जिनके जरिए दर्शकों को हँसाया जा सके। कुछ जगह ये संवाद हँसाते भी हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है। परिस्थितियों से हास्य पैदा करने की कोशिश नहीं की गई। कई दृश्य फूहड़ भी है।

लाल और दास दो लाख रूपयों की एक बस बनाते हैं। उनकी इस बस में सवारियाँ बॉम्बे से गोवा जाने के लिए बैठती हैं। ये सभी एक से एक नमूने रहते हैं। इन्हीं सवारियों में से एक की परिस्थितिवश मौत हो जाती है। मरने के पहले वह एक खजाने का नक्शा देता है। फिर शुरू होती है खजाने की तलाश।

कहानी ज्यादा खराब है या पटकथा, यह बताना मुश्किल है। फिल्म की लंबाई जरूरत से ज्यादा है। फिल्म कम से कम 30 मिनट छोटी होना चाहिए थी। एहसान कुरैशी की बेगम का चेहरा दिखाने वाली बात शायद निर्देशक भूल गए। टीनू आनंद और उसके बेटे के दृश्य बेहद बोर करते हैं।

निर्देशक राज ने ये फिल्म आगे बैठने वाले दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई है। उन्होंने सिर्फ कॉमेडी पर ध्यान दिया है। एक्शन, इमोशन और रोमांस फिल्म से गायब है। फिल्म का अंत प्रियदर्शन की फिल्मों के क्लॉइमैक्स की नकल है।

सुनील पाल, राजू श्रीवास्तव, विजय राज, आसिफ शेख, एहसान कुरैशी ने अपने-अपने किरदार ठीक तरह से निभाए हैं।

नितिन रोकाडे का संपादन बेहद खराब है। यहीं हाल फोटोग्राफी का भी है। कैमरा इस कदर हिलता है कि आँखों में दर्द होने लगता है। बजट कम होने की वजह से ज्यादातर क्लोज-शॉट लिए गए हैं। लांग-शॉट में कई बार फोकस आउट हो गया है। संगीत के नाम पर एक गाना है।

कुल मिलाकर ‘जर्नी बॉम्बे टू गोवा’ एक ऐसा सफर है, जिसके बारे में जल्दी भूलना ही उचित है।

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