ओसामा बिन लादेन को जिस तरह से अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर मार डाला था, उसके बाद कई लोगों का कहना था कि भारत भी ऐसा क्यों नहीं कर सकता। भारत का मोस्ट वांटेड मैन भी पाकिस्तान में छिपकर बैठा है और हमें भी अमेरिकियों की तरह करना चाहिए।
इस आइडिए पर फिल्म निर्देशक निखिल आडवाणी ने ‘डी डे’ नामक फिल्म बनाई है। भारत के मोस्ट वांटेड मैन को उन्होंने गोल्डमैन का नाम दिया है, जिसे ऑपरेशन गोल्डमैन के तहत जिंदा पकड़ कर पाकिस्तान से भारत लाने की कोशिश की जाती है। यह पूरी तरह से निर्देशक और लेखक की कल्पना है, लेकिन वास्तव में ऐसी घटना संभव है और यही फिल्म की खासियत है।
चार अंडरकवर एजेंट्स को गोल्डमैन को पकड़कर लाने का जिम्मा सौंपा जाता है। वली खान इस ऑपरेशन के तहत वर्षों से पाकिस्तान में है। वहां उसने अपना परिवार भी बसा लिया है। असलम ने डॉन के काफिले में अपनी जगह बना ली है। रूद्र प्रताप सिंह और जोया इस ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान में घुसते हैं।
इस ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए सरकार से इजाजत मांगी जाती है। सरकार रॉ को गोलमोल जवाब देती है, जिसे अप्रत्यक्ष रूप से हां माना जा सकता है। जो मंत्री इजाजत देता है, उसे उसका सहयोगी कहता है कि मैडम ने बुलाया है, इस इशारे से समझा जा सकता है कि वह मंत्री कौन है।
गोल्डमैन के बेटे की शादी एक बड़े होटल में है और वही उसे पकड़ने का प्लान बनाया जाता है। कागज पर स्पष्ट नजर आने वाला प्लान हकीकत में बहुत धुंधला हो जाता है। गड़बड़ियां होती हैं, कुछ ऐसी समस्याएं आ खड़ी होती हैं, जिनके बारे में सोचा भी नहीं था। ये चारों जांबाज ऑफिसर्स मुसीबत के दलदल में फंस जाते हैं।
पाकिस्तानी पुलिस, गोल्डमैन के गुर्गें पीछे पड़ जाते हैं और भारत सरकार भी इनसे पल्ला झाड़ लेती है। तमाम विकट परिस्थितियों में फंसे चारों लोग जान बचा पाते हैं या नहीं? गोल्डमैन को भारत ला पाते हैं या नहीं? यह एक थ्रिलर के रूप में फिल्म में दिखाया गया है।
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डी डे का फर्स्ट हाफ बेहतरीन है। फिल्म इतनी तेजी से भागती है कि इंटरवल होते समय उत्सुकता पैदा होती है कि अब आगे क्या होगा, लेकिन फिल्म का दूसरा हिस्सा अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। यहां न केवल फिल्म खींची गई है बल्कि कई अविश्वसनीय प्रसंग इस दौरान घटते हैं। कल्पना की उड़ान कुछ ज्यादा ही ऊंची हो गई है। ‘गदर’ की याद आती है जिसमें सनी देओल अकेले ही पाक सेना से भिड़ते हुए अपनी पत्नी को भारत ले आते हैं। ‘डी डे’ में भी कुछ इसी तरह की बात है, लेकिन ‘गदर’ जितनी ड्रामेटिक नहीं है। फिल्म का अंत परफेक्ट नहीं कहा जा सकता है। थोड़ी बहुत भाषण बाजी के बाद एक एजेंट का इतना बड़ा कदम उठा लेना सही प्रतीत नहीं होता।
फिल्म में इन चारों एजेंट्स की भावनाओं को भी उनकी ड्यूटी से जोड़ा गया है। किस तरह ये अपने परिवार को मिस करते हैं, इन्हें अपनों की कुर्बानी देनी पड़ती है या फिर किसी से रिश्ता बनाने में ये हिचकते हैं। इरफान का अपनी फैमिली से जुड़ाव को बखूबी पेश किया गया है, लेकिन हुमा के पति वाले एंगल के लिए जबरन जगह बनाई गई है। सरकारी स्तर पर हो रही धांधलियों को भी हल्के से छूआ गया है।
निर्देशक के रूप में निखिल आडवाणी का काम ठीक है। डॉन के किरदार को उन्होंने ड्रामेटिक नहीं बनाते हुए रियल रखा है। उन्होंने थ्रिल पैदा करने में सफलता पाई है, लेकिन स्क्रिप्ट की बड़ी खामियों को नजरअंदाज भी किया है, जिससे ऐसा आभास होता है कि गोल्डमैन को भारत लाना यानी म्युनिसिपैलिटी के गार्डन से फूल चुराने के समान है।
फिल्म के कलाकारों का काम बेहतरीन है। ऋषि कपूर लगातार उम्दा अभिनय कर रहे हैं। अग्निपथ, औरंगजेब के बाद डी डे में भी उन्होंने खलनायकी के तेवर दिखाए हैं। बिना गुस्सा किए या चिल्लाए उन्होंने गोल्डमैन का खौफ पैदा किया है।
इरफान खान ने ऐसे शख्स का किरदार निभाया है जो फर्ज और परिवार के बीच जूझता रहता है। फिल्म के क्लाइमेक्स में उन्हें हीरो के रूप में पेश किया गया है। अर्जुन रामपाल को उन्हीं भूमिकाओं में लिया जाता है जिसमें उन्हें चेहरा भावहीन रखना पड़ता है। डी डे में भी पूरे समय वे एक जैसे भाव लिए दिखाई दिए। श्रुति हासन छोटे रोल में प्रभावित करती हैं। हुमा कुरैशी को करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। नासेर के लिए इस तरह के रोल निभाना बेहद आसान है।
डी डे एक अच्छे आइडिए पर बनाई गई है, लेकिन स्क्रिप्ट की खामियों के कारण बात पूरी तरह नहीं बन पाई। इसके बावजूद टाइम पास के लिए यह देखी जा सकती है।