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तुम मिलो तो सही : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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निर्माता : निखिल पंचामिया
निर्देशक : कबीर सदानंद
संगीत : संदेश शांडिल्य
कलाकार : डिम्पल कपाड़िया, नाना पाटेकर, सुनील शेट्टी, विद्या मालवदे, अंजना सुखानी, रेहान खान, मोहनीश बहल

यू सर्टिफिकेट * 2 घंटे 14 मिनट
रेटिंग : 2/5

‘तुम मिलो तो सही’ तीन कपल्स की कहानी है, जो उम्र के अलग-अलग मोड़ पर हैं और जिनके लिए प्यार के मायने अलग-अलग हैं। इन तीनों की अलग-अलग कहानियाँ हैं, जिन्हें आपस में एक-दूसरे से जोड़ा है।

फिफ्टी प्लस नाना और डिम्पल अपनी-अपनी जिंदगी जी रहे हैं। नाना को ऑफिस से इसलिए निकाल दिया गया है कि कम्प्यूटर के युग में टाइपराइटर का क्या काम। उसे युवाओं से शिकायत है कि वे बूढ़ों की तुलना में अपने आपको होशियार क्यों मानते हैं। क्या बूढ़ा होते ही आदमी बेकार हो जाता है। उसके अंदर गुस्सा भरा हुआ है।

दूसरी ओर डिम्पल एक कैफे चलाती है और जिंदगी का पूरा मजा लेती हैं। इन दोनों की कहानी को निर्देशक ने बेहतरीन तरीके से पेश किया है और इस कहानी को खास बनाने में नाना पाटेकर और डिम्पल कपा‍ड़िया की एक्टिंग का भी अहम योगदान है। पारसी दिलशाद और तमिल सुब्रमण्यम के कैरेक्टर को दोनों ने जिया है।

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दूसरी कहानी है सुनील शेट्टी और विद्या मालवदे की। थर्टी प्लस के ये पति-पत्नी लाइफ के प्रेशर को ठीक से संभाल नहीं पाते। पत्नी को शिकायत है कि पति उसे और उसके बच्चे को टाइम नहीं देता है। उधर पति का कहना है कि ये मेहनत वो अपने परिवार के लिए ही कर रहा है।

ऊँची लाइफस्टाइल के लिए उसने लोन ले रखा है इसलिए काम करना उसकी मजबूरी है। इसके लिए वह सही या गलत में फर्क नहीं कर पाता। इस कहानी में कमी ये है कि दोनों कैरेक्टर कुछ ज्यादा ही ओवर रिएक्ट करते हैं। बिना मतलब के वे लड़ते रहते हैं। कुछ बोरिंग सीन भी इस कहानी में हैं।

तीसरी और सबसे कमजोर कहानी है बीस के आसपास के रेहान और अंजना की। अंजना को रेहान चाहता है, लेकिन अंजना किसी और को चाहती है। अंजना को रेहान के प्यार का अहसास तब होता है जब वो इंसान उसे धोखा देता है जिसे वह चाहती थीं। यह लव स्टोरी बेहद उबाऊ है।

ये सारी कहानियाँ जुड़ी हुई हैं डिम्पल के कैफे से, जो मुंबई में प्राइम लोकेशन पर है। एक मल्टीनेशनल कंपनी की इस पर नजर है। इस कैफे को बचाने में नाना सहयोग करता है क्योंकि वह वकील है।

रेहान और अंजना यहाँ रोजाना आते हैं और वे अन्य स्टुडेंट्‍स की मदद से डिम्पल की ओर से लड़ते हैं। सुनील उस मल्टीनेशनल कंपनी में सीओओ है, लेकिन उसकी पत्नी डिम्पल का साथ देती है। लड़ाई अदालत तक जा पहुँचती है और इसे इतनी जल्दबाजी में निपटाया गया है कि डिम्पल के हक में फैसला कैसे हुआ ये समझना मुश्किल हो जाता है।

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एक लेखक के बजाय डायरेक्टर के रूप में कबीर सदानंद ज्यादा प्रभावित करते हैं। उन्होंने एक्टर्स से अच्छा काम लिया है और कुछ शॉट्‍स अच्छे फिल्माए हैं।

फिल्म की एडिटिंग ठीक से नहीं की गई है खासकर फिल्म के आरंभ में। टाइटल सांग को छोड़ अन्य गीत बेदम है और उन्हें फिल्म में ठूँसा गया है। एक्टिंग को छोड़ फिल्म के अन्य पहलू औसत दर्जे के हैं।

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