आदित्य को सोनिया उसकी असलियत बताती है। वह आदित्य को उसकी माँ रानी जयती देवी (जया बच्चन) से मिलाने ले जाती है। आदित्य के पीछे-पीछे रिज़ भी वहाँ आ पहुँचता है और फिर शुरू होती है द्रोणा और रिज़ की लड़ाई।बुराई पर अच्छाई की विजय को आधार बनाकर गोल्डी बहल ने सदियों पुराने रहस्यों को वर्तमान से जोड़ा है, लेकिन गोल्डी यह फैसला नहीं ले पाए कि फिल्म को क्या दिशा दें। वे अपने नायक को सुपर हीरो भी बताना चाहते थे और नहीं भी। इसलिए कई बार ‘द्रोणा’ सुपर हीरो की तरह व्यवहार करता है तो कई बार लाचार हो जाता है। यही हाल खलनायक बने रिज़ का भी है, जो अपने खून की एक बूँद से अपना हमशक्ल आदमी बना लेता है, वो कई बार आसान काम नहीं कर पाता। फिल्म के पक्ष में एक बात जाती है और वो है इसका प्रस्तुतीकरण। धीमी शुरुआत के बाद फिल्म तेज गति से भागती है और ज्यादा सोचने का अवसर नहीं देती। प्रियंका का एंट्री सीन, द्रोणा को अपनी भीतरी शक्ति का अहसास होने वाला दृश्य, द्रोणा की माँ का पत्थर की मूर्ति में तब्दील होकर आँसू बहाने का वाला दृश्य बेहतरीन तरीके से फिल्माए गए हैं। फिल्म भव्य है और खुले हाथों से पैसा खर्च किया गया है। हर दृश्य में परदे के पीछे के कलाकारों की मेहनत झलकती है। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स लाजवाब हैं। समीर आर्य का फिल्मांकन और श्याम सालगाँवकर का संपादन फिल्म को रिच लुक देता है। फिल्म का एक्शन और पार्श्व संगीत भी उम्दा है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। अभिषेक बच्चन के अभिनय में वो ऊर्जा नहीं थी जो एक सुपर हीरो में होती है। उनका अभिनय ठीक-ठाक कहा जा सकता है। द्रोणा के अंगरक्षक के रूप में प्रियंका ने सफाई से एक्शन दृश्य किए हैं और अपने हिस्से आए दृश्यों को भी अच्छे से अभिनीत किया है।
के.के. मेनन नि:संदेह अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन जो विराटता उनका चरित्र माँगता है वो देने में वे असमर्थ रहे हैं। उनके अकेले बड़बड़ाने के कई दृश्य लोगों को बोर कर सकते हैं। वे खूँखार कम और जोकर ज्यादा लगे। जया बच्चन और अखिलेन्द्र मिश्रा को निर्देशक ने ज्यादा दृश्य नहीं दिए। फिल्म में बेहद कम पात्र हैं और यह बात अखरती है।
‘द्रोणा’ में भव्यता है। मेहनत है। कुछ खामियाँ भी हैं, लेकिन गोल्डी का प्रयास सराहनीय है।