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पान सिंह तोमर : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें पान सिंह तोमर : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

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बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : तिग्मांशु धुलिया
संगीत : अभिषेक रे
कलाकार : इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्मा, जाकिहुसै
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 15 मिनट * 8 रील
रेटिंग : 3.5/5

पान सिंह तोमर का इंटरव्यू ले रहा पत्रकार पूछता है‍ कि आप डाकू कब बने, तो वह नाराज हो जाता है। वह कहता है ‘डकैत तो संसद में बैठे हैं, मैं तो बागी हूं।‘ उसे अपने आपको बागी कहलाना पसंद था। समाज जब उसे न्याय नहीं दिला पाया तो उसे बागी बनना पड़ा। अपनी रक्षा के लिए बंदूक उठाना पड़ी। उसे इस बात का अफसोस भी था। बागी बनकर बीहड़ों में भागने की बजाय उसे रेस के मैदान में भागना पसंद था।

बीहड़ में ट्रांजिस्टर पर जब वह अपना नाम सुनता था तो भड़क जाता था। बुदबुदाता था कि जब उसने देश का नाम खेल की दुनिया में रोशन किया तो कभी उसका नाम नहीं लिया गया। कोई पत्रकार उससे इंटरव्यू लेने के‍ लिए नहीं आया, लेकिन बंदूक उठाते ही उसका नाम चारों ओर सुनाई देने लगा है। पान सिंह तोमर की जिंदगी दो हिस्सों में बंटी हुई है। खिलाड़ी और फौजी वाला हिस्सा उसकी जिंदगी का उजला पक्ष है तो बंदूक उठाकर बदला लेने वाला डार्क हिस्सा है।

फौजी पान सिंह की खुराक इतनी थी कि उसे सलाह दी जाती है कि वह स्पोर्ट्स में चला जाए जहां खाने पर कोई राशनिंग नहीं है। पान सिंह बहुत तेज दौड़ता था इसलिए वह खेलों की ओर चला गया। 5000 मीटर रेस में वह हिस्सा लेना चाहता था, लेकिन अपने कोच के कहने पर स्टीपलचेज़ में हिस्सा लेता है। राष्ट्रीय रेकॉर्ड बनाता है और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में ‍भी हिस्सा लेता है।

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फौज से रिटायरमेंट के बाद गांव में शांतिपूर्वक जीवन बिताना चाहता है, लेकिन चचेरे भाइयों से जमीन के विवाद के कारण उसे बागी बनना पड़ता है। बंदूक उठाने के पहले वह भाइयों की शिकायत कलेक्टर से करता है। थाने जाता है। थानेदार को जब वह अखबारों की कटिंग दिखाता है तो ‘स्टीपलचेज़’ पढ़कर थानेदार पूछता है कि पानसिंह तुम किसको चेज़ करते थे। उसकी बात नहीं सुनी जाती है और सारे मेडल फेंक दिए जाते हैं।

एथलीट पान सिंह की कहानी में कई उतार-चढ़ाव है, इसीलिए तिग्मांशु धुलिया को उन पर फिल्म बनाने का आ‍इडिया आया। यह आइडिया उन्हें तब सूझा था जब वे शेखर कपूर के असिस्टेंट के रूप में ‘बैडिंट क्वीन’ की शूटिंग चंबल के बीहड़ों में कर रहे थे। पान सिंह का नाम उन्होंने सुना और उन्हें लगा कि इस शख्स की कहानी सिल्वर स्क्रीन पर दिखाई जानी चाहिए।

तिग्मांशु ने कुछ बेहतरीन फिल्में बनाई हैं, लेकिन अब तक उन्हें वो श्रेय नहीं मिल पाया है, जिसके वे हकदार हैं। ‘पान सिंह तोमर’ भी उन्होंने देखने लायक बनाई है। चम्बल के डाकू पर कई फिल्में बनी हैं, लेकिन तिग्मांशु की फिल्म वास्तविकता के बेहद नजदीक है।

आमतौर पर डाकू को बॉलीवुड फिल्मों में घोड़ों पर दिखाया जाता है जबकि हकीकत ये है कि वे मीलों पैदल ही चलते थे। कैसे वे जंगलों में रहते थे, गांव वाले उनकी क्यों मदद करते थे, किस तरह से पुलिस को उनकी सूचना मिलती थी, इस बात को तिग्मांशु ने बारीकी से दिखाया है। यही बात पा‍न सिंह के खेल वाले हिस्से के लिए भी कही जा सकती है।

डाकू और बदले की कहानी के बावजूद यह फिल्म बोझिल नहीं है। पान सिंह की कहानी और उसके कैरेक्टर को बेहद मनोरंजक तरीके से दिखाया गया है। पान‍ सिंह और उसकी पत्नी की नोकझोक वाले हिस्से बड़े मजेदार हैं।

पान सिंह की स्पष्टवादिता के कारण भी कई जगह हास्यास्पद स्थितियां निर्मित होती हैं। वह अपने ऑफिसर को साफ कह देता है कि कई अफसर निकम्मे हैं, सरकार चोर है और उसे अपने एक रिश्तेदार पर गर्व है जो बागी है और पुलिस उसे अब तक पकड़ नहीं पाई है। फिल्म में बहुत ज्यादा हिंसा भी नहीं है और सेंसर बोर्ड ने इसे ‘यू’ सर्टिफिकेट दिया है।

दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ी लंबी हो गई है और इसे पन्द्रह मिनट छोटा किया जा सकता था। फिल्म में भिंड और मुरैना में बोली जाने वाली भाषा का इस्तेमाल किया गया है। इससे फिल्म की विश्वसनीयता और बढ़ जाती है। हालांकि कुछ शब्दों का अर्थ समझना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन बात समझ में आ जाती है।

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इरफान खान ने पान सिंह तोमर को परदे पर जिस तरह जिया है उससे फिर साबित हो गया है कि यह अभिनेता कभी खराब अभिनय नहीं कर सकता है। फौजी, खिलाड़ी और डकैत जैसे उनके कई चेहरे फिल्म में देखने को मिलते हैं। खिलाड़ी के रूप में उनकी उम्र ज्यादा लगती है, लेकिन जब उनके जैसा काबिल अभिनेता हो तो यह बात कोई मायने नहीं रखती है। माही गिल, विपिन शर्मा, जाकिर हुसैन जैसे परिचित चेहरों के अलावा कई नए चेहरे नजर आते हैं और सभी के अभिनय का स्तर बहुत ऊंचा है।

फिल्म के अंत में उन खिलाड़ियों के नाम देख आंखें नम हो जाती है, जिन्होंने खेलों की दुनिया में भारत का नाम रोशन किया, लेकिन उनमें से किसी ने बंदूक उठा ली, किसी को अपना पदक बेचना पड़ा तो कई इलाज के अभाव में दुनिया से चल बसे। पान सिंह भी इनमें से एक था।

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