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पीपली लाइव : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, आमिर खान प्रोडक्शन्स
निर्माता : आमिर खान, किरण राव
निर्देशक : अनुषा रिज़वी
संगीत : इंडियन ओशन, राम संपत, नगीन तनवीर
कलाकार : ओंकार दास माणिकपुरी, रघुवीर यादव, मलाइका शिनॉय, नवाजुद्दीन सिद्दकी, शालिनी वास्ता, फारुख जफर
केवल वयस्कों के लिए * 12 रील * 1 घंटा 46 मिनट
रेटिंग : 3.5/5

पीपली लाइव उन लोगों की कहानी है जो भारत के भीतरी इलाकों में रहते हैं। ये लोग इन दिनों भारतीय सिनेमा से गायब हैं। इनकी सुध कोई भी नहीं लेता है और चुनाव के समय ही इन्हें याद किया जाता है।

तरक्की के नाम पर शाइनिंग इंडिया की तस्वीर पेश की जाती है। चमचमाते मॉल बताए जाते हैं। लेकिन भारत की लगभग दो तिहाई आबादी इन दूरदराज गाँवों में रहती है, जिन्हें एक समय का भोजन भी भरपेट नहीं मिलता है।

कहने को तो भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, लेकिन किसानों की माली हालत बहुत खराब है। उनके लिए कई योजनाएँ बनाई जाती हैं, लेकिन उन तक पहुँचने के पहले ही योजनाएँ दम तोड़ देती हैं। बीच में नेता, बाबू, अफसर उनका हक हड़प लेते हैं। पिछले दिनों इन योजनाओं को लेकर श्याम बेनेगल ने भी ‘वेल डन अब्बा’ बनाई थी और अब अनुषा ‘पीपली लाइव’ लेकर हाजिर हुई हैं।

नत्था और उसके भाई बुधिया की जमीन बैंक हडपने वाली है क्योंकि लोन वापस करने के लिए उनके पास पैसे नहीं है। वे एक नेता के पास जाते हैं, जो कहता है कि जीते जी तो सरकार तुम्हारी मदद नहीं कर सकती, लेकिन आत्महत्या कर लो तो मुआवजे के रूप में एक लाख रुपए तुम्हें मिल सकते हैं।

बुधिया थोड़ा तेज है। वह नत्था को आत्महत्या करने के लिए राजी कर लेता है ताकि उसकी बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों को सहारा मिल जाए। उनके प्लान की भनक मीडिया को लग जाती है। अचानक नत्था का घर चर्चा का केन्द्र बन जाता है। मीडिया वाले कैमरे और माइक लेकर उनके घर के इर्दगिर्द जमा हो जाते हैं और नत्था आत्महत्या करेगा या या नहीं ब्रेकिंग न्यूज बन जाती है।

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फिल्म की निर्देशक और लेखक अनुषा रिजवी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ी थी, इसलिए उन्होंने उनकी जमकर खबर ली है। किस तरह ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर सनसनी फैलाई जाती है। किस तरह न्यूज क्रिएट की जाती हैं, ये उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है।

मीडियाकर्मी नत्था के घर के आगे डेरा डाल देते हैं। उसकी हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है। वह पेट साफ करने के लिए खेत जाता है तो उसके पीछे कैमरा लेकर दौड़ लगाई जाती है और बताया जाता है कि आज नत्था इतनी बार मल त्यागने गए हैं। नत्था के मल का रंग देख उसकी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाया जाता है।

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मीडिया को सिर्फ सनसनी में रूचि है। नत्था की हालत ऐसी क्यों है? उसकी मानसिक स्थिति कैसी है? यह कोई नहीं जानना चाहता। रिपोर्टर्स को नौकरी बचाने के लिए बाइट पाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है, इसकी भी झलक देखने को मिलती है।

नत्था की मौत का तमाशा राजनीति का भी अखाड़ा बन जाता है। चुनाव सिर पर है, इसलिए विरोधी चाहते हैं कि वह मर जाए ताकि सरकार के खिलाफ मुद्दा मिल जाए। एक नेता तो नत्था को साहसी पुरुष बताते हुए उसे टीवी इनाम में देता है। भूखे-प्यासे नत्था के लिए टीवी का क्या काम? बेचारा अंत तक टीवी को बॉक्स में से नहीं निकालता।

बार-बार कदम उठाने की दुहाई देने वाला कलेक्टर लालबहादुर योजना के नाम पर हैंडपंप नत्था को दे जाता है, लेकिन फिटिंग के लिए पैसा नहीं देता। अफसर से लेकर मंत्री तक नत्था के नाम पर एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं, लेकिन नत्था की तकलीफ दूर करने की कोई नहीं सोचता।

नत्था जैसे कई किसान उस गाँव में रहते हैं, लेकिन उनकी सुध लेने को कोई तैयार नहीं है। एक मरियल-सा आदमी तपती धूप में दिन-रात गड्‍ढा खोदकर मिट्टी बेचता है, बदले में उसे पन्द्रह से बीस रुपए मिलते हैं। उसी गड्ढे में वह दम तोड़ देता है, लेकिन उसकी खबर न मीडिया देता है और न ही कोई नेता उसकी मौत पर अफसोस जताता है।

अनुषा रिजवी ने उस भारत की तस्वीर पेश की गई जो शाइनिंग इंडिया की चकाचौंध में कहीं गुम हो गया है। व्यंग्यात्मक तरीके से उन्होंने दिखाया है कि कितने ही नत्था आज भी बेसिक चीजों के लिए तरस रहे हैं। फिल्म देखते समय होंठों पर मुस्कान आती है, लेकिन दर्द भी महसूस होता है।

निर्देशक के रूप में अनुषा की यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम सधा हुआ है। एक सीन को दूसरे सीन को उन्होंने संवादों के जरिये खूबसूरती से जोड़ा है। बीच में जरूर फिल्म थोड़ी ठहरी हुई महसूस होती है, लेकिन कुल मिलाकर उन्होंने बढि़या काम किया है। मनोरंजन के साथ उन्होंने अपनी बात कही है।

अभिनय के मामले में सारे कलाकार बेहतरीन साबित हुए हैं। नत्था के रूप में ओंकारदास माणिकपुरी ने कमाल किया है। रोल के मुताबिक उनका चेहरा, बॉडी लैग्वेंज एकदम परफेक्ट है। रघुबीर यादव हमेशा की तरह बेहरीन हैं। नत्था की पत्नी के रूप में शालिनी वात्सा और माँ फारुख जाफर की नोकझोक सुनने लायक है। छोटे से रोल में नसीरुद्दीन शाह और टेलीविजन रिपोर्टर के रूप में मलाइका शिनॉय भी प्रभावित करते हैं।

‘महँगाई डायन’ और ‘देश मेरा’ सुनने लायक हैं। फिल्म के संवाद एकदम रियल हैं और गाँव को खूबसूरती के साथ शूट किया गया है।

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फिल्म के निर्माता आमिर खान भी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने बिना स्टार्स के इस तरह ‍की फिल्म बनाई। पहले ‘पीपली लाइव’ जैसी फिल्मों को सिर्फ फिल्म समारोहों में ही देखा जा सकता था, लेकिन आमिर ने मार्केटिंग के साथ इतने सारे सिनेमाघरों में इसे रिलीज किया और ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को यह फिल्म उपलब्ध कराई।

स्वतंत्रता दिवस वाले सप्ताह में उन्होंने फिल्म को रिलीज कर यह बताने की कोशिश की है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी कई भारतीय बदहाली भरा जीवन जी रहे हैं।

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