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फँस गए रे ओबामा : 'लादेन' जैसी 'ओबामा'

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हमें फॉलो करें फँस गए रे ओबामा

दीपक असीम

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निर्माता : अशोक पांडे
निर्देशक : सुभाष कपूर
संगीत : मनीष जे. टीपू
कलाकार : रजत कपूर, नेहा धूपिया, अमोल गुप्ते, संजय मिश्रा, मानु रिशी

जैसी कि उम्मीद थी "फँस गए रे ओबामा" अच्छी होगी, सो अच्छी ही निकली। मानु रिशी ने क्या बढ़िया काम किया है। रजत कपूर को पीछे छोड़ दिया। मानु रिशी को नहीं जानते आप? "ओए लकी लकी ओए" में अभय देओल का जो चोर साथी रहता है, वही है मानु रिशी। बढ़िया कलाकार है।

खैर...उसे छोड़िए। बात तो हम फिल्म की कर रहे थे। फिल्म बहुत बढ़िया है। "तेरे बिन लादेन" के साथ इस फिल्म को रखा जा सकता है। "लादेन" में हास्य अधिक था और इसमें व्यंग्य की बहुलता है। थोड़ा सा अनगढ़पन जरूर है, मगर वो मजा देता है। पसमंजर है रिसेशन का मगर बात है उत्तरप्रदेश और बिहार में अपहरण उद्योग चलाने वाले गिरोहों और उन गिरोहों के सिरमौर बने बैठे नेताओं की।

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प्रकाश झा की "अपहरण" में जो रोल नाना पाटेकर ने किया था, वही रोल यहाँ बिलकुल ही अलग शेड में अमोल गुप्ते ने किया है। एक ऐसे मंत्री का रोल जो अपहरण को उद्योग की तरह चलाता है और सबको पैसा देता है। पुलिस को, मुख्यमंत्री को, गृहमंत्री को...।

रजत कपूर एनआरआई ओम शास्त्री है। मंदी की सुनामी में सब कुछ गँवाकर ये भारत आता है अपनी पुश्तैनी हवेली बेचकर कर्जा चुकाने के मकसद से। मगर फँस जाता है अपहरण करने वाले टटपुंजिए गिरोह के चक्कर में। गिरोह जब देखता है कि "पार्टी" पहले से ही कंगाल है, तो वो उसे दूसरे गिरोह को बेच देता है। यह खेल मजेदार तरीके से चलता है।

व्यंग्य की पराकाष्ठा तब आती है, जब फिरौती देने वालों को लाइन में खड़े दिखाया गया है और फिरौती वसूलने के लिए एक दफ्तर सा लगा हुआ है, जहाँ रसीदें कट रही हैं। रसीद लेकर आदमी को वहाँ जाना है, जहाँ शिकार को बंद करके रखा गया है। फिरौती की रसीद देता हुआ एक शख्स कहता है - ये रसीद लो। अब साल भर तक की फुरसत। साल भर के अंदर अगर कोई अपहरण कर ले, तो मंत्रीजी की ये रसीद दिखा देना।

निश्चित ही अतिश्योक्ति से भी काम लिया गया है। मगर यदि अतिश्योक्ति का इस्तेमाल सधे हुए तरीके से हो, तो ये मजा देती है। संजय मिश्रा सबसे कमजोर गैंग का लीडर है। वो राजनीति में जाना चाहता है और उसके लिए अपराध ही एक रास्ता है। वो बहुत गंभीरता से कहता है कि उसे बड़ा हाथ मारना है ताकि उसका नाम हो और वो विधायक बन सके।

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रजत कपूर ने हमेशा की तरह बहुत बढ़िया काम किया है। मगर साठ फीसद फिल्म पर मानु रिशी छाए हुए हैं और चालीस पर अमोल गुप्ते का कब्जा है। नेहा धूपिया का रोल जरा कच्चा सा है। उनकी जगह कोई बदसूरत, डेंजर सी महिला होती, तो बात और दमदार रहती। थोड़े से ग्लैमर के लालच में रोल के साथ इंसाफ नहीं हो पाया।

सुभाष कपूर इस फिल्म के निर्देशक भी हैं और कहानी, स्क्रीनप्ले लेखक भी। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है। गाँव और कस्बे का प्रस्तुतिकरण बहुत ही सजीव है। कैलाश खैर का गाया एक गीत भी जानदार है। कुल मिलाकर ये ऐसी फिल्म है जिसे इस हफ्ते बगैर ऊबे देखा जा सकता है।

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