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फालतू : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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बैनर : पूजा एंटरटेनमेंट (इंडिया) लि.
निर्माता : वासु भगनानी
निर्देशक : रेमो डिसूजा
संगीत : जिगर-सचिन
कलाकार : जैकी भगनानी, पूजा गुप्ता, रितेश देशमुख, अंगद बेदी, चंदन रॉय सान्याल, अरशद वारसी
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 10 मिनट * 16 रील
रेटिंग : 2/5

हॉलीवुड फिल्म ‘एक्सेप्टेड’ और बॉलीवुड फिल्म ‘3 इडियट्स’ से प्रेरणा लेकर ‘फालतू’ बनाई गई है। हालाँकि फिल्म के निर्देशक रैमो डिसूजा का कहना है कि इसकी कहानी उनके जीवन से प्रेरित है क्योंकि कम नंबर लाने के कारण कॉलेज लाइफ में उन्हें फालतू किस्म का इंसान माना जाता था।

इस फिल्म में भी शिक्षा प्रणाली, पैरेंट्स का दबाव और हर छात्र को दिल की बात सुनने की बात कही गई है, लेकिन इन भारी-भरकम बातों को बेहद हल्के-फुल्के तरीके से हास्य में डूबोकर कहा गया है।

35 से 70 प्रतिशत नंबर की श्रेणी में कई छात्र आते हैं, जिन्हें बड़े कॉलेज में ए‍डमिशन नहीं मिलता। इंजीनियरिंग और मेडिकल तो छोड़िए उन्हें सामान्य कोर्स में भी दाखिला नहीं मिलता।

ऐसे स्टुडेंट्स जिनका पढ़ने में दिल नहीं लगता है उन्हें ‘3 इडियट्स’ में अपने दिल की बात सुनने की बात कही गई थी और इसी बात को ‘फालतू’ में दोहराया गया है। यानी कि अपने शौक को ही अपना प्रोफेशन बनाया जाए। 3 इडियट्स की ऊँचाई तक फालतू तो नहीं पहुँचती, लेकिन थोड़ा-बहुत मनोरंजन जरूर करती है।

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रितेश विरानी (जैकी भगनानी), नंज (अंगद बेदी), पूजा (पूजा गुप्ता) और विष्णु वरदान (चंदन रॉय सान्याल) बेहद अच्छे दोस्त हैं। पहले तीन पढ़ाई में बिलकुल कमजोर हैं और उन्हें कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलता है।

माँ-बाप को वे परेशान नहीं देखना चाहते हैं, इसलिए बातों ही बातों में चारो एक कॉलेज खोल लेते हैं। इस कॉलेज में उनके जैसे कुछ और फालतू जुड़ जाते हैं। सिवाय नाचने, गाने और बीयर पीने के इस कॉलेज में कुछ नहीं होता है।

एक दिन रितेश को लगता है कि वे सब ये गलत कर रहे हैं। सबको वह अपनी बात समझाता है कि वे जो बनना चाहते हैं उस पर ध्यान दें और ये फालतू किस्म समझे जाने वाले विद्यार्थी लायक बन जाते हैं।

फिल्म में कॉमेडी पर ध्यान दिया गया है, इसलिए इंटरवल के पहले कुछ अखरने वाली बातों (जैसे चार लोगों का पूरे कॉलेज का हुलिया बदलकर रंग करना, साफ-सफाई करना, एक लावारिस बंगला मिल जाना, कॉलेज में दिन-रात चलने वाली पार्टियों के लिए पैसा कहाँ से आना) की उपेक्षा की जा सकती है। लेकिन मध्यांतर के बाद जब फिल्म गंभीर होती है तब इस तरह की बातों (जैसे एक मंत्री का कॉलेज को मान्यता दे देना, बिना मान्यता प्राप्त कॉलेज का प्रतियोगिता में भाग लेना, पैरेंट्स का हृदय परिवर्तन होना) को पचाना आसान नहीं है।

निर्देशक रेमो डिसूजा ने फिल्म की गति को बेहद तेज रखा है और कई दृश्यों को मनोरंजक तरीके से पेश किया है, लेकिन अधिकतर संवाद या दृश्य सुने हुए या देखे हुए लगते हैं। बूढ़ों और बदसूरत लोगों का भी मजाक उड़ाया गया है।

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फिल्म के गाने देखते हुए ज्यादा अच्छे लगते हैं। चार बज गए लेकिन पार्टी अभी बाकी है तो हिट हो चुका है, आलतू जलाल तू भी अच्छा बन पड़ा है। क्लाइमेक्स गाने की कोरियोग्राफी बेहद उम्दा है। तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है।

जैकी भगनानी के चेहरे पर एक से भाव रहते हैं और उन्हें अभिनय के बारे में काफी सीखना है। पूजा गुप्ता के लिए करने को ज्यादा कुछ नहीं था। चंदन रॉय सान्याल, रितेश देशमुख और अंगद बेदी प्रभावित करते हैं। अरशद वारसी का पूरी तरह उपयोग नहीं किया गया है।

‘फालतू’ तभी देखी जा सकती है जब ज्यादा दिमाग पर जोर न लगाना हो और फालतू वक्त हो।

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