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फास्ट एंड फ्यूरियस : विदेशी कचरा

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दीपक असीम

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फिल्म "फास्ट एंड फ्यूरिअस" देखने से पता चलता है कि ब्राजील में कांक्रीट घटिया होता है, पर लोहे की नलीदार चद्दरें बेहद मजबूत...। हीरो और उसके संगी साथी कांक्रीट की दीवार को तो धक्के से तोड़ देते हैं, मगर तीन-तीन मंजिल ऊँचाई से वे पतरे वाली छत पर छलाँग लगाते हैं और पतरे का कुछ नहीं बिगड़ता। अपने देश में ऐसी चद्दरें कहाँ बनती हैं? पर बात पतरे की नहीं फिल्म की है और जहाँ तक बात फिल्म की है, लोगों के बहकावे में आकर "फास्ट एंड फ्यूरियस" देखने की कतई जरूरत नहीं है।

विदेशी एक्शन फिल्में भी अपने देश की एक्शन फिल्मों से कम बकवास नहीं होतीं। विदेशी भाषा में गिटपिटा लेने से पीतल सोना नहीं हो जाता। अब इसमें चलती मालगाड़ी से कुछ कारें लूट लेने का दृश्य है। साफ लगता है कि ये सब असंभव है। और आगे पता चलता है कि लूट का मकसद कार नहीं, उसमें रखी एक कम्प्यूटर चिप है। कम्प्यूटर चिप तो बाद में कहीं से चुराई जा सकती थी। मगर ऐसा करने से वो चलती मालगाड़ी वाला सीन नहीं हो पाता।

इस फिल्म में एक बुरा आदमी है, जो अपना काला धन दसियों जगह छुपाकर रखता है। फिर कुछ लोग उसके पीछे लग जाते हैं और वो बुरा आदमी अपना सारा काला धन पुलिस स्टेशन में रखवा देता है। उसके पीछे लगे लोग वो धन वहाँ से भी लूट लेते हैं और शान की जिंदगी गुजारने लगते हैं। फिल्म की कहानी बस इतनी ही है।

दूसरी फिल्मों में इतना ध्यान रखा जाता है कि किसी भी किस्म की लूटमार को कामयाब होते नहीं दिखाया जाए। लूटमार कामयाब हो भी जाए तो उसका उद्देश्य ऐसा पवित्र रख दिया जाए कि सबके गले उतर जाए। मगर यहाँ ऐसा नहीं किया गया है।

जिस आदमी ने गलत ढंग से पैसा कमाया वो बुरा है क्योंकि उसने गलत ढंग से पैसा कमाया, मगर ये लोग अच्छे हैं। इनकी अच्छाई केवल यह है कि यह लोग उस बुरे आदमी को लूट लेते हैं। लूट कर पैसा सरकार के पास जमा नहीं कराते।

कायदे से काला धन तो सरकारी खजाने में जाना चाहिए, मगर ये कथित अच्छे लोग पैसा अपने पास रख लेते हैं। ये ऐसा ही हुआ जैसे कोई जाँबाज स्विस बैंकों से भारतीय काला धन निकाल लाए, मगर सरकारी खजाने में जमा कराने की बजाय खुद रख ले।

इस बे-सिर-पैर फिल्म को सब सराह रहे हैं। इस फिल्म को हिन्दी में भी डब किया गया है, मगर फिर भी कुछ समझ नहीं आता। शरद जोशी का व्यंग्य "वर्जीनिया वुल्फ" याद आ गया। फिल्म बहुत कम लोगों को भा रही होगी, मगर तारीफ इसलिए सब कर रहे हैं कि हमें पिछड़ा या कमअक्ल न समझ लिया जाए।

फिल्म में कई पात्र हैं। कुछ गोरे हैं कुछ काले हैं। कुछ भूरे भी हैं यानी जापानी, विएतनामी। इस तरह इसके निर्देशक ने फिल्म में इंटरनेशनल अपील पैदा करने की कोशिश की है। इनका आपस में दोस्ती का संबंध है। दो-तीन लड़कियाँ भी हैं। लड़कियाँ सब गोरी हैं।

चोरों की गैंग में एक साले बहनोई भी हैं। हम लोग गोरों की शक्ल भूल जाते हैं, उनके नाम भूल जाते हैं। किसका किसके साथ क्या रिश्ता है, क्या दुश्मनी है, यह भी याद नहीं रख पाते। नीग्रोज के साथ भी हमसे यही होता है। ऐसे में बहुत सारे पात्रों वाली विदेशी डब फिल्म हमें कैसे रुच सकती है?

एक्शन दृश्यों के लिए पहले हम ऐसी फिल्में देखा करते थे, मगर अब अपने देश में क्या कमी है? विदेशी कारों की तबाही के ऐसे दृश्य तो रोहित शेट्टी अपनी हास्य फिल्मों के गाने में ही डाल देते हैं। शाहरुख खान "रा-1" बना रहे हैं। अभी हमने रजनीकांत की रोबोट देखी।

"फास्ट एंड फ्यूरियस" एक्शन दृश्यों में भी इनमें से किसी का मुकाबला नहीं करती। ये फिल्म बकवास है, घटिया है, उबाऊ है, बे-सिर-पैर की है... सबसे बड़ी बात कि इसका संदेश भी अनैतिक और गैरकानूनी है।

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