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बाबर : हर तरह से कमजोर

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अनहद

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निर्माता : मुकेश शाह, सुनील एस. सैनी
निर्देशक : आशु त्रिखा
संगीत : आनंद राज आनंद
कलाकार : मिथुन चक्रवर्ती, सोहम, ओमपुरी, सुशांत सिंह, उर्वशी शर्मा, मुकेश तिवारी, टीनू आनंद, गोविंद नामदेव, शक्ति कपूर

इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कौन-सी फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है और कौन-सी नहीं? अगर आप एक काल्पनिक फिल्म बहुत अच्छी स्क्रिप्ट के साथ बना रहे हैं और निर्देशन भी बढ़िया है तो आपकी कहानी विश्वसनीय हो उठेगी। इसके बरखिलाफ कोई सच्ची कहानी होने के बावजूद अगर आपके पास स्क्रिप्ट के नाम पर कचरा और दिमाग के नाम पर सड़ा हुआ खरबूजा है, तो आप "बाबर" जैसी फिल्म बना मारेंगे।

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आशु त्रिखा की इस फिल्म को कानपुर के किसी अपराधी पर आधारित बताया गया है, मगर फिल्म में बहुत-सी गलतियाँ हैं। पहली गलती है कास्टिंग की। मिथुन चक्रवर्ती की चाल-ढाल इतनी नकली और फैंसी है कि वे किसी विश्वसनीय फिल्म में पुलिस अफसर की भूमिका नहीं निभा सकते। आर्ट डायरेक्शन भी कमजोर है। कोई भी पुलिस अफसर सादे कपड़े पहनते समय भी इतने चीप टेस्ट वाले शर्ट्स नहीं पहन सकता जितने पूरी फिल्म में मिथुन दादा ने पहने हैं।

मिथुन दादा बंगाली स्टाइल के ऐसे सनी देओल हैं जो नाच भी सकते हैं। इससे ज्यादा रेंज उनकी नहीं है। फिल्म "सरफरोश" में आमिर खान आईपीएस अफसर बने हैं। पूरी फिल्म में उन्होंने वर्दी नहीं पहनी। केवल सफेद या हल्के रंग के शर्ट पहनकर ही वे आईपीएस की भूमिका निभा ले गए। नए नायक सोहम अभिनय के मामले में जीरो हैं। उनका चेहरा सपाट है। उन्होंने अपराधी का रोल किया है जिसका नाम बाबर है। वे कहीं से भी इतने लोगों की हत्या कर डालने वाले अपराधी नहीं लगते। गोलियाँ तो फिल्म में ऐसे चलती हैं, जैसे हवा चल रही हो।

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फिल्म देख यह भी लगता है कि निर्देशक आशु त्रिखा पर बहुत-सी फिल्मों का प्रभाव है। वे उर्वशी को मकबूल की तब्बू की तरह वापरना चाहते थे। उर्वशी दस जनम लेकर भी तब्बू जैसी एक्टिंग नहीं कर सकतीं। निर्देशक ने उर्वशी से ओंकारा टाइप डांस कराने की कोशिश की है और "बीड़ी जलई ले" के सीन भी मार दिए हैं, मगर गुलजार जैसा गीत कौन लिख सकता है और बिपाशा के नमक की होड़ उर्वशी नहीं कर सकतीं। फिल्म में लगातार मार-धाड़ चलती रहती है, पर यह समझ नहीं आता कि क्यों चल रही है, कैसे चल रही है। अपराध की दुनिया में अंधाधुँध गोलीबारियाँ तो बहुत कम होती हैं, घात-प्रतिघात और विश्वासघात ज्यादा होते हैं।

पूरी फिल्म में केवल ओमपुरी ही हैं, जो बाँधे रखते हैं, वरना सब फालतू हैं। कहानी भी किसी एंगल से गले नहीं उतरती। कुल मिलाकर यह बेहूदा-सी फिल्म है जिसे देखने के बाद घंटों सिर भारी रहता है।

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