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मद्रास कैफे: फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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बॉलीवुड में पॉलिटिकल थ्रिलर मूवी नहीं के बराबर बनी हैं क्योंकि सेंसर के परे हुल्लड़बाजों से भी निपटना पड़ता है जो इस तरह की फिल्मों को प्रदर्शित नहीं होने देते हैं। सरकार से ज्यादा उनकी चलती है। करोड़ों रुपये दांव पर लगाकर भला जोखिम कौन उठाएगा? मद्रास कैफे के निर्माताओं की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने इस तरह की फिल्म पर पैसे लगाना मंजूर किए और दर्शकों के लिए एक शानदार फिल्म पेश की।

मद्रास कैफे में इतिहास के पन्नों को पलटकर उस षड्यंत्र को पेश किया गया है जिसके कारण भारत के पूर्व प्रधानमंत्री की जान चली गई थी। 80 के दशक के मध्य में श्रीलंका में जातिवाद को लेकर हुए हिंसक संघर्ष के कारण कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। ऐसे में भारत की ओर से शांति बहाल करने के लिए सेना भेजी गई, जिससे एक गुट नाराज हो गया था।

मेजर विक्रम सिंह (जॉन अब्राहम) को रॉ के कवर्ट ऑपरेशन के तहत श्रीलंका भेजा जाता है। वहां उसे अपने सहयोगी बाला की मदद से विद्रोही एलटीएफ ग्रुप के मुखिया अन्ना भास्करन (अजय रत्नम) को शांति के लिए राजी करना है या उसके ग्रुप को तोड़ना है ताकि उसकी ताकत आधी रह जाए।

यह एक कठिन कार्य था, लेकिन विक्रम उस वक्त हैरान रह जाता है जब उसे पता चलता है कि यह ऑपरेशन इसलिए सफल नहीं हो रहा है क्योंकि अपने ही कुछ लोग दुश्मनों से मिले हुए हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर षड्यंत्र रचा जा रहा है।

फिल्म में न आइटम नंबर है, ना कॉमेडी और न ही रोमांस। निर्देशक शुजीत सरकार ने फिल्म को वास्तविकता के नजदीक रखते हुए उन सब बातों को भूला दिया है जो कमर्शियल फिल्म की सफलता के आवश्यक अंग माने जाते हैं। इसका ये मलतब नहीं है कि फिल्म देखते समय ऐसा महसूस हो कि हम आर्ट मूवी या डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं बल्कि यह एक थ्रिलर मूवी जैसा मजा देती है।

सोमनाथ डे और शुभेंदु भट्टाचार्य ने फिल्म की कहानी लिखी है। उनका काम बताता है कि उन्होंने काफी रिसर्च किया है। बहुत ही स्मार्ट तरीके से उन्होंने का‍ल्पनिक किरदारों को वास्तविक घटना से जोड़ा है। दो घंटे 10 मिनट में श्रीलंका में अशांति क्यों हुई से पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या तक के सारे घटनाक्रमों को समेटा गया है और यह काम आसान नहीं था।

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शुजीत सरकार द्वारा निर्देशित ‘मद्रास कैफे’ की शुरुआत थोड़ी गड़बड़ है। बढ़ी हुई दाढ़ी और शराब के नशे में चूर जॉन अब्राहम को सपने में श्रीलंका की हिंसा ‍नजर आती है। वह चर्च में जाकर पादरी के सामने सारी बात कहता है और फिल्म फ्लेशबैक में जाती है। यह प्रसंग कुछ खास जमता नहीं है।

फिर शुरू होता है लंबा वॉइस ओवर जिसमें इतिहास सुनाया जाता है। स्टॉक शॉट दिखाए जाते हैं। ढेर सारे नाम और प्रसंगों के कारण थोड़ी परेशान होती है, लेकिन कहानी जब परत दर परत खुलती है तो फिल्म में पकड़ आ जाती है। करीब पैंतालीस मिनट बाद तो फिल्म सरपट दौड़ती हुई एक थ्रिलर का मजा देती है। फिल्म का क्लाइमैक्स सीट पर चिपक कर बैठने के लिए मजबूर करता है।

यहां पर किसी का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन इशारा किस ओर है ये स्पष्ट है। शुजीत सरकार ने किसी का पक्ष न लेते हुए अपनी बात कही है। इस फिल्म में एक्शन की बहुत ज्यादा गुंजाइश थी, लेकिन उन्होंने इस एक्शन को मानसिक तनाव के रूप में दिखाया है। शुजीत ने दिखाया कि उग्रवादियों को हमारे यहां से भी मदद मिली थी, जिसका भयानक परिणाम सामने आया।

जूही चतुर्वेदी द्वारा लिखे गए ज्यादातर संवाद अंग्रेजी में हैं। फिल्म के शुरुआत में तो बीच-बीच में हिंदी सुनाई देती है, ऐसा लगता है कि अंग्रेजी फिल्म देख रहे हों। इस वजह से अंग्रेजी ना जानने वाले दर्शकों को समझने में तकलीफ होती है। हालांकि हिंदी में सबटाइटल्स दिखाए गए हैं, लेकिन इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।

नरगिस फाखरी और जॉन अब्राहम का वार्तालाप बनावटी लगता है। नरगिस अंग्रेजी में बोलती हैं और जॉन हिंदी में। यदि नरगिस भी टूटी-फूटी हिंदी बोल लेती तो कोई फर्क नहीं पड़ता। निर्देशक ने देश की रक्षा के में लगे लोगों की पारिवारिक जिंदगी कितनी कठिन होती है, इसकी एक झलक भी दिखलाई है।

मद्रास कैफ में जॉन का अभिनय उनके करियर के बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। उनसे जितना बेहतर हो सकता था उन्होंने किया। नरगिस फाखरी का किरदार पत्रकार अनिता प्रताप से प्रेरित है और वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।

सिद्धार्थ बसु फिल्म का सरप्राइज है और उन्होंने एक सरकारी ऑफिसर का किरदार बेहतरीन तरीके से जिया है। बाली के रूप में प्रकाश बेलावादी का अभिनय उल्लेखनीय है। जॉन की पत्नी के रूप में राशि खन्ना के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था।

कमलजीत नेगी की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। समुंदर, सूर्योदय, सूर्यास्त और जंगल को उन्होंने बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। फिल्म का संपादन चुस्त है।

नाच, गाने, फूहड कॉमेडी और स्टीरियो टाइप कहानी/किरदारों के बिना भी एक अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है, ये मद्रास कैफे साबित करती है।

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निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, जेए एंटरटेनमेंट, राइजिंग सन फिल्म्स
निर्देशक : शुजीत सरकार
संगीत : शांतनु मोइत्रा
कलाकार : जॉन अब्राहम, नरगिस फाखरी, सिद्धार्थ बसु, अजय रत्नम, प्रकाश बेलावादी, राशि खन्ना
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट
रेटिंग : 3.5/5

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