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माई फ्रेंड पिंटो : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, एसएलबी फिल्म्स
निर्माता : संजय लीला भंसाली, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : राघव डार
संगीत : अजय गोगावले, अतुल गोगावले, शमीर टंडन, कविता सेठ, हितेश सोनिक
कलाकार : प्रतीक बब्बर, कल्कि कोएचलिन, दिव्या दत्ता, मकरंद देशपांडे
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 1 घंटा 42 मिनट * 12 रील
रेटिंग : 1/5

‘माई फ्रेंड पिंटो’ किस उद्देश्य से बनाई गई है, यह शायद इससे जुड़े लोगों को भी पता नहीं होगा। कुछ फिल्में मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन ये तो बोरियत से भरी है। मनोरंजन और इसमें छत्तीस का आंकड़ा है।

कुछ फिल्में संदेश देने के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन इस फिल्म को देख यह संदेश मिलता है कि अपने दिल की बात सुनो, जुआ खेलते वक्त दिल जो बोले उस नंबर पर दांव लगाओ तो मालामाल हो जाओगे। फिल्म के नाम में दोस्त शब्द आया है, लेकिन दोस्ती-यारी जैसी कोई बात सामने नहीं आती है।

लगता है कि निर्देशक राघव डार पर राज कपूर का प्रभाव है। राज कपूर की फिल्मों में नायक बहुत भोला-भाला रहता है, शहर आता है, लोगों की भलाई करता है और लोग उसे ही ठग लेते हैं। ‘माई फ्रेंड पिंटों’ का नायक माइकल पिंटो भी ऐसा ही है। सीधा-सादा, दिल की बात सुनने वाला। कुत्तों से उसे भी प्यार है। उसका गेटअप भी कहीं-कहीं राज कपूर की याद दिलाता है। ऐसे किरदारों के जरिये जो राज कपूर जो फिल्में बनाते थे, वो बात ‘माई फ्रेंड पिंटो’ में कहीं नजर नहीं आती है।

मां की मौत के बाद माइकल पिंटो अपने बचपन के दोस्त समीर से मिलने मुंबई चला आता है। समीर को उसने कई खत लिखे जिसका उसने कोई जवाब नहीं दिया। पिंटो के साथ-साथ हमेशा कोई न कोई गड़बड़ी होती रहती है। वह टकराता रहता है और टूट-फूट होती रहती है।

समीर की बीवी पिंटो को बिलकुल नहीं चाहती। न्यू ईयर की पार्टी मनाने के लिए पति-पत्नी पिंटों को घर में बंद कर निकल पड़ते हैं। पिंटो किसी तरह बाहर निकलता है और सूखे पत्ते की तरह जहां हवा ले जाती है इधर-उधर घूमता रहता है। कई मजेदार लोगों से उसकी मुलाकात होती है, जिसमें जुआरी भी है और डॉन भी। सब उसके दोस्त बनते जाते हैं क्योंकि पिंटो की संगत उनकी जिंदगी बदल देती है।

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इस तरह की फिल्में पहले भी बन चुकी है और पिंटो में नयापन नजर नहीं आता है। साथ ही फिल्म में मनोरंजन का अभाव है। जो सीन दर्शकों को हंसाने के लिए, उनका मनोरंजन करने के लिए गढ़े गए हैं, वो बेहद ऊबाऊ हैं। डॉन वाला ट्रेक तो बोरियत से भरा है।

कई ट्रेक निर्देशक ने एक साथ चलाए हैं, लेकिन किसी में भी दम नहीं है। कुछ गाने भी फिल्म में डाले गए हैं, जो सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। प्रतीक और कल्कि के रोमांटिक ट्रेक को ज्यादा फुटेज दिए जाने थे, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया।

प्रतीक बब्बर ने पिंटो के भोलेपन को अच्छे तरीके से अभिनीत किया है। कल्कि का रोल छोटा है, लेकिन वे अपना असर छोड़ती हैं। राज जुत्शी और मकरंद देशपांडे ने जमकर बोर किया है। दिव्या दत्ता का अभिनय बेहतर है।

कुल मिलाकर ‘माई फ्रेंड पिंटो’ से दोस्ती करने में कोई मतलब नहीं है।

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