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मान गए मुगल-ए-आजम : मान गए!!!

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समय ताम्रकर

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निर्माता : चंपक जैन, गणेश जैन, रतन जैन
निर्देशक : संजय छैल
संगीत : अनु मलिक
कलाकार : राहुल बोस, मल्लिका शेरावत, परेश रावल, के.के. मेनन, पवन मल्होत्रा, ज़ाकिर हुसैन
रेटिंग : 1/5

फिल्म शुरू होती है और दस मिनट में ही समझ में आ जाता है कि आगे कितना बोर होना पड़ेगा। एक थर्ड क्लास नाटक कंपनी के थर्ड क्लास कलाकार ‘मुगल-ए-आजम’ नाटक का मंचन करते हैं। वे जो मन में आता है वो बोलते हैं। हिंदी, उर्दू, अँग्रेजी के अलावा वे आपसी बातचीत भी कर लेते हैं और सामने बैठे दर्शक खूब हँसते हैं।

समय 1993 का है, कुछ पुराने इंडिया टुडे और फिल्मफेअर के मार्फत यह दिखाया गया है। सेंट लुईस नामक एक छोटे शहर में यह नाटक खेला जाता है। फिल्म के एक संवाद में बताया जाता है कि इस छोटे-से शहर में गिनती के लोग हैं और गिनती के मकान। लेकिन यहाँ इस नाटक के लगभग 125 शो होते हैं। गिनती के लोग होने के बावजूद इस घटिया नाटक के इतने शो?

निर्देशक ने दर्शक बदलने की जहमत भी नहीं उठाई। अधिकांश दृश्यों में वही चेहरे मौजूद रहते हैं। एक बोलता है मैं यहाँ रोज आता हूँ क्योंकि यह नाटक देखने में बड़ा मजा आता है। धन्य है सेंट लुईस के लोग।

राहुल बोस रॉ के एजेंट दिखाए गए हैं। लगता है कि उन्हें बहुत फुर्सत थी। रोजाना नाटक देखने आते और अनारकली बनी मल्लिका शेरावत को निहारते। मल्लिका की शादी उम्र में उनसे कहीं बड़े परेश रावल से हुई है। मल्लिका राहुल को भी चाहती है और परेश को भी। राहुल जब चाहते उसके मेकअप रूम, बेडरूम और बाथरूम में घुस जाते।

1993 का समय इसलिए दिखाया गया है कि उस समय देश में दंगे भड़काने की साजिश रची जा रही थी। राहुल बोस को इस बारे में पता चलता है और वे नाटक कंपनी के साथियों की मदद से देश को बचाते हैं, लेकिन बेचारे दर्शक नहीं बच पाते।

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हर तरह के किरदार इस फिल्म में हैं। के.के. मेनन रॉ एजेंट हैं, साथ में गजल गायक भी हैं। उनके तार आईएसआई और अंडरवर्ल्ड से भी जोड़ दिए गए। बाद में उनसे लाश के रूप में भी अभिनय करवा दिया। थिएटर का एक कलाकार दाउद इब्राहीम जैसा है ताकि वक्त आने पर वह नकली दाउद बन सके।

निर्देशक संजय छैल ने इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा ‘जाने भी दो यारो’ के क्लायमैक्स में खेले गए नाटक से ली है। उन्होंने फिल्म को जमकर रबर की तरह खींचा। अंडरवर्ल्ड, विवाहेतर संबंध, देशभक्ति, कॉमेडी जैसी सारी चीजें उन्होंने फिल्म में डाल दीं, लेकिन यह सब मिलकर ट्रेजेडी बन गई। ढाई घंटे तक परदे पर नौटंकी चलती रहती है। निरंतरता का फिल्म में अभाव है और कोई भी सीन कहीं से भी टपक पड़ता है।

‘मुगल-ए-आजम’ नाटक में तो उन्होंने जानबूझकर कलाकारों को घटिया अभिनेता दिखाने के लिए ‍घटिया अभिनय कराया, लेकिन नाटक के बाहर भी उनसे घटिया अभिनय क्यों करवाया यह समझ के परे है। परेश रावल, के.के. मेनन, पवन मल्होत्रा, राहुल बोस जैसे सारे कलाकार फिल्म में ओवर एक्टिंग करते रहे। क्या ओवरएक्टिंग को ही निर्देशक ने हास्य मान लिया। इतने अच्छे कलाकारों का ठीक से उपयोग नहीं कर पाना निर्देशक की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

राहुल बोस और परेश रावल ने तरह-तरह के गेटअप बदलकर अपनी-अपनी भूमिका निभाई, लेकिन प्रभावित नहीं कर पाए। राहुल बोस का अभिनय देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनके सिर पर बंदूक तानकर जबर्दस्ती उनसे अभिनय करवा रहा हो। के.के. मेनन ने खूब बोर किया। मल्लिका शेरावत का ध्यान अभिनय पर कम और अंग प्रदर्शन पर ज्यादा था।

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अनु मलिक ने अपनी सारी बेसुरी और पुरानी धुनें निर्माता को टिका दीं। आश्चर्य होता है कि ये धुनें उस संगीत कंपनी (वीनस) ने खरीदी, जो संगीत की समझ होने का दावा करती है। गानों के फिल्मांकन पर खूब पैसा खर्च किया गया है, लेकिन एक भी देखने लायक नहीं है। कहानी से भी इनका कोई लेना-देना नहीं है।

फिल्म की प्रचार लाइन में लिखा गया है ‘मिशन...मोहब्बत...मैडनेस’, लेकिन फिल्म देखने के बाद सिर्फ अंतिम शब्द ध्यान रहता है।

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