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रण : आशंकाओं पर सौ प्रतिशत खरी

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अनहद

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निर्माता : शीतल विनोद तलवार, मधु मटेंना
निर्देशक : रामगोपाल वर्मा
संगीत : अमर मोहिले, धर्मराज भट्ट, संदीप पाटिल, जयेश गाँधी, बापी, टुटुल, संजीव कोहली
कलाकार : अमिताभ बच्चन, रि‍तेश देशमुख, परेश रावल, मोहनीश बहल, नीतू चन्द्रा, गुल पनाग, सु‍चित्रा कृष्णमूर्ति, रजत कपूर, सुदीप, राजपाल यादव

रामगोपाल वर्मा की फिल्म "रण" सबसे पहले तो पॉलीटिकली राँग है और एक किस्म की बेईमानी से भरी है। मुख्य खलनायक को उन्होंने इशारे से देश की सत्तासीन पार्टी का नेता बताने की कोशिश की है और ईमानदार नेता हुड्डा और कोई नहीं विपक्षी पार्टी के एक जानेमाने नेता ही हैं। आतंकवाद के खिलाफ जिस कड़े कानून की तरफ इशारा किया गया है, उसका पक्षधर कौन है यह भी सब जानते हैं। हालाँकि लोग यह भी जानते हैं कि असल मुद्दा कड़ा कानून नहीं, आतंकवादियों को पकड़ना है।

पुलिस जब किसी गुंडे को पकड़कर धुनती है, तो किस कानून के तहत? जब किसी का एनकाउंटर कर दिया जाता है तो किस धारा में? असल मुद्दा कानून नहीं आतंकवादी का पकड़ में आना है। कसाब पर पोटा नहीं लगा, तो क्या कसाब बच जाएगा? अफजल गुरु पर भी पोटा नहीं लगा, पर उसे फाँसी की सजा मिली है।

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बहरहाल फिल्म "रण" आशंका पर खरी उतरती है। रामगोपाल वर्मा ने वाकई भाषणबाजी से भरी एक फिल्म बना डाली है। विजय हर्षवर्धन मलिक (अमिताभ बच्चन) एक आदर्शवादी टीवी पत्रकार हैं। उसका चैनल घाटे में है और उसका बेटा जय (सुदीप) गलत लोगों का सहारा लेकर ईमानदार प्रधानमंत्री को पद से हटवा देता है और एक गलत आदमी को प्रधानमंत्री बनवा देता है। बाद में विजय को ये बात पता चलती है तो वो उसे शपथग्रहण समारोह से ही लौटने के लिए मजबूर कर देता है। जबकि वास्तविकता में ऐसा होना लगभग असंभव है। किसी भी मीडिया में इतनी ताकत नहीं है कि ऐसा कर सके।

उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने पिछले चुनाव में मीडिया से कोई बात नहीं की और धुर गाँवों में काम करती रहीं। मीडिया ने उनकी पार्टी को नंबर तीन पर बता दिया, लेकिन चुनावी नतीजों ने उसकी पोल खोलकर रख दी। पता चला कि मीडिया शहरी क्षेत्रों को भी ठीक से प्रभावित नहीं करता है। बाद में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने तंज़ करते हुए कहा भी था कि मीडिया लोगों को जिताने-हराने का खेल खेल रहा था तो मैंने सोचा कि क्यों उसे डिस्टर्ब किया जाए।

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फिल्म की एक बड़ी कमजोरी है उसका बोरिंग होना। अंत में जो लंबा संवाद अमिताभ ने बोला है, वो तो लोरी का काम करता है। पूरी नींद लेकर सीधे सिनेमाघर जाने वाला भी झपकी ले सकता है। थका-मांदा आदमी तो खर्राटे भरने लगे। क्लाइमैक्स जैसी कोई चीज नहीं है। गुल पनाग के जिम्मे केवल रितेश देशमुख का एकालाप सुनना है। नीतू चंद्रा यही काम कम कपड़े पहनकर सुदीप (अमिताभ के बेटे जय) के लिए करती है। सुचित्रा कृष्णमूर्ति दुश्मन चैनल की जासूस है।

परेश रावल का गेटअप "बैंडिट क्वीन" के गोविंद नामदेव की नकल है। पूरे वक्त वे धूप का काला चश्मा आँख पर डाले रहते हैं। हालाँकि सबसे विश्वसनीय चरित्र भी परेश रावल का ही है। सुदीप का अभिनय बढ़िया है। अमिताभ "बागवान" के मजबूर बूढ़े जैसे लगे हैं। कुल मिलाकर फिल्म देखना एक तरह से परीक्षा देना है।

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