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लव एक्प्रेस नहीं नकल पैसेंजर

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दीपक असीम

IFM
बैनर : मुक्ता आर्टस लि., मुक्ता सर्चलाइट फिल्म्स
निर्माता : सुभाष घई
निर्देशक : सन्नी भंबानी
संगीत : जयदेव कुमार
कलाकार : साहिल मेहता, विकास कत्याल, मन्नत रवि, प्रियुम गालव, ओम पुरी

छोटे शहरों और कस्बों में अखबार के मार्फत एक्टिंग स्कूल या शिविर का प्रचार किया जाता है। प्रशिक्षण के बाद "काम की गारंटी" भी दी जाती है। प्रशिक्षण पूरा होने पर अभिनय सीखने वालों से कहा जा सकता है कि स्टोरी फाइनल है, हीरो-हीरोइन तुम हो ही। बस पैसे की कमी है। पैसा ले आओ तो फिल्म बना लेते हैं। फिक्र मत करो रिलीज होते ही सबके पैसे फायदे सहित वापस मिल जाएँगे।

अमीर घरों के बच्चे कैसे भी करके पैसे लाते हैं। फिल्म की थोड़ी बहुत शूटिंग होती है, और एक्टिंग स्कूल वाले पैसे लेकर भाग जाते हैं। लड़के महसूस करते हैं कि ठग लिए गए और लड़कियों को पता चलता है कि वे हर एंगल से लुट गईं।

सुभाष घई ने जो नया एक्टिंग स्कूल "विसलिंग वुड" खोला है, वो भी क्या इसी ढर्रे पर है? विसलिंग वुड के छोरा-छारियों ने फिल्म बनाई है - "लव एक्सप्रेस"। फिल्म क्या है, पुरानी फिल्मों में से जो अच्छा लगा उसकी कटिंग का ढेर है।

कहानी वो है जो सैकड़ों दफा दोहराई जा चुकी है। शादी तय होती है, लड़का-लड़की एक दूसरे को नापसंद करते हैं। रिश्ता तोड़ लेते हैं। मगर बाद में फिर एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं और शादी कर ही लेते हैं। शादी पंजाबी ढंग से हो रही है, सो उस टाइप के कैरेक्टर हैं, नाच गाना है। दारूबाजी है। मगर सब बासी-बासी सा है।

निर्देशक सन्नी भंबानी को ये समझ नहीं आया कि मैं नकल मार रहा हूँ। विसलिंग वुड में यदि यही सब सिखाते हैं, तो फिर जिन्होंने विसलिंग वुड में जाकर कुछ नहीं सीखा, उन्होंने कैसे इस विषय को पहले ही फिल्मा लिया?

विसलिंग वुड में एक्टिंग के नाम पर भी शायद ही कुछ सिखाया जाता हो। एक बेशर्मी पूरी फिल्म पर हावी है कि हाँ जी हम तो कमर्शियल सक्सेस फिल्म बनाएँगे और आपको जो कहना हो कह लो।

फिल्म का हीरो साहिल मेहता रणबीर कपूर की तरह दिखता है। अच्छा डायरेक्टर होता तो उसे इस तरह फिल्माता कि रणबीर कपूर की छाप उस पर से हट जाए। मगर यहाँ तो जानबूझकर लड़के को रणबीर कपूर जैसा ही दिखाने की कोशिश की गई है। सो जब-जब साहिल रणबीर कपूर नहीं दिखता, और भी ज्यादा बुरा और दयनीय दिखता है।

सुभाष घई का स्टाइल अब भले ही पिट गया हो, मगर किसी ज़माने में तो उनके पास मौलिक शैली थी। उनके सिखाए पूतों के पास तो ये भी नहीं है। हीरो पर रणबीर कपूर हावी है, डायरेक्टर पर करण जौहर का भूत चढ़ा है।

तमाम ओवरएक्टिंग में एक दूसरे से होड़ ले रहे हैं। सबसे बुरा है हीरो के बाप का किरदार निभाने वाला कलाकार। जो लोग दस सेकंड की एडफिल्म के लायक नहीं हैं, उन्हें बड़े-बड़े रोल दे दिए गए हैं।

फिल्म की हीरोइन मन्नात जरूर अपवाद है। वो सुंदर है, टैलेंटेड है और ओवर एक्टिंग से भी बची रही है। दिक्कत यह है कि वो उसी तरह सुंदर है, जिस तरह फिल्म की हीरोइन को होना चाहिए। इसके अलावा उसके पास कुछ नहीं है। कोई ऐसी मौलिक चीज जो सबसे हटकर हो...।

खैर...फिल्म बहुत ही बुरी है। इंटर के बाद तो कहानी इतनी साफ हो जाती है कि बोरियत होने लगती है। क्लाइमेक्स में क्लाइमेक्स जैसा कुछ नहीं है। एक मिनट बाँधकर रखने की कुव्वत फिल्म में नहीं है।

विसलिंग वुड में फिल्म मेकिंग सीखने वाले तमाम लोग उम्र से भले ही जवान और नौजवान हों, पर दिलो-दिमाग से थके-मांदे हैं। विसलिंग वुड की प्रतिष्ठा (अगर वो कहीं है तो) कायम रखने के लिए जरूरी है कि इस फिल्म को नष्ट कर दिया जाए।

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