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लेकर हम दीवाना दिल : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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इम्तियाज अली की फिल्मों के हीरो-हीरोइन अक्सर कन्फ्यूज रहते हैं कि उनके बीच प्यार है या नहीं। बिछुड़ने पर उन्हें अहसास होता है कि वे एक-दूसरे को चाहते हैं और जब सामने होते हैं तो लड़ने लगते हैं। इम्तियाज के भाई आरिफ अली ने अपने भाई की इसी बात को 'लेकर हम दीवाना दिल' में पेश किया है। इम्तियाज की सोचा ना था, जब वी मेट, हाईवे जैसी फिल्में आपको 'लेकर हम दीवाना दिल' देखते वक्त याद आएंगी। इतनी सारी फिल्मों को सामने रख कर भी आरिफ ढंग की फिल्म नहीं बना पाए।

फिल्म को आज के युवाओं के अनुरूप बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन कहानी सदियों पुरानी है। करिश्मा (दीक्षा सेठ) रूढि़वादी दक्षिण भारतीय परिवार से है और उसके पिता अपनी पसंद के लड़के से उसका ब्याह रचाना चाहते हैं। अपने दोस्तों के साथ बीअर गटकने वाली करिश्मा अपने पिता का विरोध करने की हिम्मत नहीं रखती। डीनो (अरमान जैन) उसका दोस्त है। करिश्मा की शादी तय हो जाती है और उसे शादी से बचाने के लिए डीनो उसे भगा ले जाता है।

गोआ से नागपुर होते हुए वे रायपुर और फिर बस्तर पहुंच जाते हैं। रास्ते में उन्हें अहसास होता है कि वे एक-दूसरे को प्यार करते हैं लिहाजा शादी कर लेते हैं। बस्तर के जंगलों में भटकते हुए वे नक्सलियों के बीच पहुंच जाते हैं। पैसे और सुख-सुविधा खत्म होने पर उनका प्यार फुर्र हो जाता है और यह नफरत में तब्दील हो जाता है।

करिश्मा अपने घर फोन कर वापस लौट जाती है। मामला फैमिली कोर्ट में पहुंच जाता है और तलाक के लिए दोनों आवेदन करते हैं। तलाक की प्रक्रिया लंबी चलती है और एक-दूसरे से जुदा होने पर उन्हें प्यार का अहसास होता है।

फिल्म की कहानी जहां से शुरू होती है अंत में वहीं पहुंच जाती है। हीरो-हीरोइन बाप के पैसों पर अय्याशी करते हुए प्यार करते हैं, लेकिन जब पैसे खत्म हो जाते हैं और प्यार की परीक्षा शुरू होती है तो उनका प्यार असफल साबित होता है। लेकिन एक बार जब वे वापस घर लौटते हैं तो उनमें मोहब्बत फिर जाग जाती है। यानी उनमें प्यार तभी हो सकता है जब जेबें भरी हो। यह स्क्रिप्ट की सबसे बड़ी खामी है।

खामियों के साथ-साथ फिल्म मनोरंजक भी नहीं है। इंटरवल के पहले तो फिल्म को झेलना बहुत मुश्किल है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी पकड़ आती है और प्रेमियों के बिछुड़ने के दर्द को आप महसूस करते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि ‍दर्शकों की फिल्म में रूचि खत्म हो जाती है।

आरिफ अली ने लेखन और निर्देशन जैसी दोनों महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां उठाई हैं। निर्देशन के रूप में वे लेखक से भी कमजोर साबित हुए हैं। कई सीन उन्हें बेहूदा तरीके से शूट किए हैं। मसलन एक बाप अपने जवान बेटे को लिफ्ट में अचानक पीटने लगता है मानो वह अपराधी हो। नक्सलियों के बीच आइटन सांग की सिचुएशन हास्यास्पद तरीके से बनाई गई है। नक्सलियों का प्रमुख एक फिल्म निर्देशक और उसकी यूनिट को पकड़ लेता है और कहता है कि बहुत दिनों से फिल्म नहीं देखी है आज कुछ गाना-बजाना हो जाए। फौरन आइटम सांग टपक पड़ता है। फिल्म को 'कूल' बनाने की बनावटी कोशिश साफ नजर आती है। सैकड़ों बार 'कूल' 'रिलैक्स' शब्द सुनने को मिलते हैं। आरिफ ने ड्रामे को इस कदर बोरियत भरे तरीके से पेश किया है कि न तो प्रेमियों के प्रेम की आंच महसूस होती है और न ही मनोरंजन होता है।

फिल्म के कलाकारों से भी आरिफ ठीक से काम नहीं करवा पाए। माना कि हीरो और हीरोइन का रोल निभाने वाले कलाकार नए हैं, अभिनय में कच्चे हैं, लेकिन उन पर आरिफ नियंत्रण नहीं रख पाए। फिल्म के अधिकतर कलाकार चीखते-चिल्लाते नजर आए। बिना किसी कारण के वे सीन में भड़क जाते थे। डीनो के भाई के रोमांस वाला ट्रेक पता नहीं क्यों रखा गया है।

अरमान जैन अपने अभिनय से निराश करते हैं। उनकी लाउड एक्टिंग देख झल्लाहट होती है। उन्हें अपने आपको नियंत्रित रख अभिनय करना सीखना होगा। अरमान के मुकाबले दीक्षा सेठ का अभिनय अच्छा और आत्मविश्वास से भरा है। रोहिणी हट्टंगडी को छोड़ दिया जाए तो‍ फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट निराश करती है।

प्रेम कहानी में संगीत महत्वपूर्ण होता है, लेकिन 'लेकर हम दीवाना दिल' में हिट गानों की कमी खलती है। 'खलीफा' को छोड़ कोई भी हिट गीत एआर रहमान नहीं दे पाए।

कुल मिलाकर लेकर हम दीवाना दिल बनावटी और बोर फिल्म है।

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बैनर : इरोज इंटरनेशनल, इल्यूमिनाती फिल्म्स
निर्माता : सैफ अली खान, दिनेश विजन
निर्देशक : आरिफ अली
संगीत : एआर रहमान
कलाकार : अरमान जैन, दीक्षा सेठ, रोहिणी हट्टंगडी
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 20 मिनट
रेटिंग : 1/5

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