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शादी के साइड इफेक्ट्स : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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शादी का लड्डू ऐसा है जो खाए पछताए और जो न खाए वो भी पछताए। ज्यादातर लोग इसे खाकर ही पछताना पसंद करते हैं। कुछ लोगों का दो-तीन बार भी इस लड्डू खाने के बावजूद मन नहीं भरता। हालांकि अब ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ रही है जिन्हें शादी नामक संस्था पर विश्वास नहीं है।

शादी के बाद बच्चा आता है तो अक्सर पति-पत्नी के बीच के समीकरण उलट-पुलट जाते हैं। पति को लगता है कि उसकी बीवी पर बच्चे की मां हावी हो गई है। उनकी लाइफ में रोमांस नहीं बचा है। सेक्स लाइफ भी डिस्टर्ब हो जाती है क्योंकि पति-पत्नी के बीच बच्चा सोने लगता है। जवाबदारी बहुत बढ़ जाती है। लांग ड्राइव, होटल में डिनर, दोस्तों के साथ पार्टी, खेल का आनंद लेना अब सब कुछ 'बेबी' की मर्जी से तय होता है। इसी के इर्दगिर्द बुनी गई है 'शादी के साइड इफेक्ट्स' की कहानी।

सिड रॉय (फरहान अख्तर) और त्रिशा मलिक रॉय (विद्या बालन) की जिंदगी में सब कुछ सही चलता रहता है, जब तक कि वे दो से तीन नहीं होते। अपने रोमांस में तड़का लगाने के लिए वे अक्सर पब में जाते हैं, अनजानों की तरह मिलते हैं और फिर रोमांस करते-करते होटल के कमरे में चले जाते हैं। उनका रोमांस देख होटल का सिक्यूरिटी वाला सिड को बुलाकर कहता है कि हमारे होटल में इस तरह की हरकतें बर्दाश्त नहीं की जाएगी, लेकिन जब सिड उसे बताता है कि वह पति-पत्नी हैं तो सिक्यूरिटी वाला आश्चर्यचकित रह जाता है। सिड उसे सफल शादी-शुदा जिंदगी का राज बताता है कि जब पति गलती करे तो पत्नी को 'सॉरी' कहो और जब पत्नी की गलती हो तो भी पति ही 'सॉरी' बोले।

दीवार पर सिड और त्रिशा के लगे फोटो कम होते जाते हैं और उनकी जगह लेता है उनके बच्चे का फोटो। उसी तरह सिड और त्रिशा की जिंदगी में भी बच्चा आकर उनमें दूरियां पैदा करता है। अब दोनों के लिए एक-दूसरे के पास वक्त नहीं है। सारी बातें बेबी के इर्दगिर्द घूमती है और इससे सिड परेशान हो जाता है।

इंटरवल तक फिल्म बेहतरीन है। एक शादी-शुदा कपल के रिश्ते को आधार बनाकर बेहतरीन हास्य और रोमांस का ताना-बाना बुना गया है। इस दौरान कई ऐसे दृश्य आते हैं जब हंसी रोकना मुश्किल हो जाता है। शादी-शुदा लोगों को सिड और त्रिशा में अपना अक्स नजर आता है तो कुंआरों को कुछ सीखने को मिलेगा।

दूसरे हाफ में पहले हाफ जैसी कसावट नजर नहीं आती है। फिल्म खींची हुई लगती है क्योंकि कुछ गैर-जरूरी प्रसंगों को फिल्म में डाल दिया गया है। त्रिशा का जीजा (राम कपूर) सिड को सलाह देता है कि उसे झूठ बोलकर हर दस-पंद्रह दिनों में दो-तीन होटल में बिताने चाहिए, जहां वह मनमाफिक जिंदगी जी सके।

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सिड ऐसा ही करता है, लेकिन जब पैसे कम पड़ने लगते हैं तो वह पेइंग गेस्ट बन कर रहने लगता है। पेइंग गेस्ट बन कर रहने वाला प्रसंग और वीर दास द्वारा निभाया गया किरदार स्क्रिप्ट में बेवजह ठूंसा गया है। स्क्रिप्ट कई बार कमजोर पड़ती है। ऐसा लगता है कि पति-पत्नी के बीच यदि कुछ ठीक नहीं है तो इसका जवाबदार पत्नी की ही है। वह अपने पति पर ध्यान नहीं दे रही हैं कसूरवार वही है। पति ये समझने की कोशिश नहीं करता कि अब उसकी पत्नी मां भी है। फिल्म के लेखक और निर्देशक साकेत चौधरी इस मुद्दे पर भटक गए हैं, हालांकि क्लाइमैक्स में उन्होंने पत्नी को भी होशियार दिखाकर न्याय करने की कोशिश की है।

सिड को एक स्ट्रगलर दिखाया गया है, त्रिशा बच्चे के बाद नौकरी छोड़ चुकी है, लेकिन जिस तरीके से वे जीते हैं, उसे देख प्रश्न उठता है कि उनके पास इतने पैसे कहां से आ रहे हैं? इला अरुण का आंटी वाला किरदार भी अपनी छाप छोड़ नहीं पाया। फिल्म के दूसरे हिस्से में यदि स्क्रिप्ट पर थोड़ी मेहनत की गई होती बेहतर होता। स्क्रिप्ट राइटर ने नए किरदारों को जोड़ा, लेकिन वे खास असर नहीं छोड़ पाएं।

साकेत चौधरी का निर्देशन अच्छा है। उन्होंने भावुकता से भरी प्रस्तुति के बजाय हास्य के साथ कहानी को प्रस्तुत किया है। इमोशन सही मात्रा में डाला गया है और अतिभावुकता से बचे हैं। अपने सारे कलाकारों से उन्होंने अच्छा काम लिया है और कॉमेडी दृश्यों को उन्होंने बेहतरीन तरीके से फिल्माया है।

फरहान अख्तर का नाम यदि फिल्म से जुड़ा है तो यह इस बात की गारंटी हो गई है कि फिल्म में कुछ हटकर देखने को मिलेगा। 'शादी के साइड इफेक्ट्स' में उनकी कॉमिक टाइमिंग देखने लायक है। सिड के किरदार में उन्हें भावना, कुंठा, रोमांस और हास्य जैसे भाव दिखाने को मिले और फरहान कही भी कमजोर साबित नहीं हुए।

फरहान की तुलना में विद्या का रोल थोड़ा कमजोर है, लेकिन विद्या अपनी बेहतरीन एक्टिंग से दबदबा साबित करती हैं। फरहान के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी है। दोनों का अभिनय ही फिल्म को देखने लायक बना देता है। राम कपूर, वीर दास, गौतमी कपूर, इला अरुण और पूरब कोहली ने भी अपने हिस्से का काम बखूबी किया है। रति अग्निहोत्री को सीन ज्यादा संवाद कम मिले।

प्रीतम का संगीत निराश करता है। अरशद सईद के संवाद उल्लेखनीय हैं और कई बार दृश्य पर संवाद भारी पड़ता है। खासतौर पर फरहान की बीच-बीच में जो कमेंट्री है वो बेहद गुदगुदाने वाली है। 'मेरी खामोशी भी अब झूठ बोलने लगी है' और 'चुप रहता हूं तो घुटन होती है और बोलता हूं तो झगड़ा होता है' जैसे गंभीर संवाद भी सुनने को मिलते हैं।

शादी के साइड इफेक्ट्स में बेहतरी की गुंजाइश थी, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि यह अच्छी फिल्म नहीं है। कुछ कमियों के बावजूद ये फिल्म मनोरंजन करने में कामयाब होती है।

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बैनर : प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशन्स, बालाजी मोशन पिक्चर्स
निर्माता : रंगिता प्रीतीश नंदी, प्रीतीश नंदी, एकता कपूर
निर्देशक : साकेत चौधरी
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : फरहान अख्तर, विद्या बालन, राम कपूर, वीर दास, इला अरुण, पूरब कोहली, रति अग्निहोत्री
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट
रेटिंग : 3/5

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