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सम्राट एंड कंपनी : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

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सम्राट एंड कंपनी का जासूस सम्राट तिलक धारी फिल्म में एक संवाद बोलता है कि मैं साधारण केस नहीं लेता हूं क्योंकि ये टूटी हुई पेंसिल की तरह होते हैं जिनमें कोई पाइंट या नोक नहीं होती। यह बात फिल्म पर भी लागू होती है। जासूसी फिल्मों में ऐसी धार होनी चाहिए कि दर्शक अपनी सीट से हिल ना सके, उस मामले में फिल्म दम से खाली है। मंथर गति से चलने वाली इस फिल्म को यदि आप बीच में पन्द्रह मिनट नहीं भी देखें तो भी फिल्म समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी। एक छोटी सी कहानी जिस पर 25 मिनट का टीवी एपिसोड काफी होता उसे दो घंटे की फिल्म बनाकर खींचा गया है।

सम्राट तिलक धारी (राजीव खंडेलवाल) पहली बार मिलने वाले शख्स के बारे में चुटकी में बता देता है कि वह कौन सा अखबार पढ़ता है, कहां से आ रहा है, उसके क्या शौक है? लेकिन एक मामूली से केस को सुलझाने में वह काफी वक्त लेता है। शिमला में रहने वाली युवा और अमीर लड़की डिम्पी सिंह (मदालसा शर्मा) मुंबई आकर सम्राट से मिलती है। डिम्पी का केस अजीब है। उसके बगीचे के वृक्ष दिन पर दिन सूखते जा रहे हैं। डिम्पी के पिता के घोड़े की भी रहस्मयी परिस्थिति में मौत हो गई। सीसीटीवी फुटेज देखने पर एक एक छाया नजर आती है। डिम्पी के पिता डरे हुए और बीमार हैं। मामले की विचित्रता सम्राट को इस केस को लेने के लिए मजूबर करती है। वह केस सुलझाने पहुंचता है, लेकिन मामला उलझता जाता है। हत्याएं होने लगती हैं। लेकिन सम्राट मामले की तह तक पहुंच ही जाता है।

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सम्राट एंड कंपनी की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें एक्शन कम और संवाद बहुत ज्यादा है। खासतौर जासूस बना सम्राट काम कम करता है और बहुत ज्यादा बोलता है। उसके कई संवाद तो समझ में ही नहीं आते क्योंकि बहुत ही तेज गति से बोले गए हैं। अफसोस इस बात का है कि फिल्म की गति ऐसी तेज नहीं है।

कौशिक घटक ने फिल्म का निर्देशन किया है और मनीष श्रीवास्तव के साथ इसे लिखा भी है। फिल्म लिखते समय कागज पर भले ही अच्‍छी लगी हो, लेकिन स्क्रीन पर इसे उतारने में कौशिक बुरी तरह असफल रहे हैं। ढेर सारी चीजों को उन्होंने फिल्म से जोड़ा, लेकिन अंत में वे सब निरर्थक साबित होती हैं। दर्शकों को भ्रमित करने के लिए बार-बार उन्होंने उन चेहरों पर फोकस किया है जिन पर शक की सुई घूमती है, लेकिन ये सब तरकीबें अब पुरानी हो चुकी हैं। जिस पर शक की सुई निर्देशक एक बार भी नहीं घुमाता वही अंत में कातिल निकलता है और सिनेमाहॉल में बैठे दर्शकों के पास भले ही इस बात का लॉजिक न हो, लेकिन निर्देशक की शैली को देखते हुए वे कातिल का नाम पहले ही बता देते हैं।

फिल्म में कई हास्यास्पद सीन है। जैसे दो लोग लड़ रहे हैं और उनके बीच सवाल-जवाब का दौर चल रहा है। स्क्रिप्ट में भी कई खामियां हैं। कॉमेडी के नाम पर कई बेतुके सीन रखे गए हैं। गानों का मोह भी नहीं छोड़ा गया है। क्लाइमेक्स में कातिल तक पहुंचने का तरीका बेहद घटिया है और बच्चों की कहानी जैसा लगता है। किरदारों की इतनी भीड़ है कि नाम और चेहरे तक याद नहीं रहते। इससे फिल्म में रूचि बहुत जल्दी ही खत्म हो जाती है।

राजीव खंडेलवाल अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन 'सम्राट एंड कंपनी' में वे कई बार असहज दिखे। मदालसा शर्मा के लिए करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था और वे किसी भी तरह का प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। गिरीश कर्नाड जैसे अभिनेता को निर्देशक ने बरबाद कर दिया। प्रोडक्शन क्वालिटी भी दमदार नहीं है।

सम्राट एंड कंपनी के साथ सौदे में नुकसान दर्शकों का ही है।

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बैनर : राजश्री प्रोडक्शन्स प्रा.लि.
निर्माता : कविता बड़जात्या
निर्देशक : कौशिक घटक
संगीत : अंकित तिवारी
कलाकार : राजीव खंडेलवाल, मदालसा शर्मा, गोपाल दत्त, गिरीश कर्नाड, प्रियांशु चटर्जी
* 2 घंटे 6 मिनट
रेटिंग : 1/5

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