अक्षय (तुषार कपूर) एक क्राइम रिपोर्टर है। टीवी चैनल पर काम करता है, फिर भी वो असफल (?) है। उसके पास इतने पैसे नहीं है कि वो अपनी प्रेमिका जो कि डॉन (मिथुन चक्रवर्ती) की बहन (राइमा सेन) है को लेकर दुबई भाग सके। पैसे तो उसकी प्रेमिका भी ला सकती थीं, लेकिन इस बारे में उन्होंने सोचा ही नहीं। मिस्टर जोशी (अनुपम खेर) अपने बेटे से परेशान हैं। इसके पीछे भी कोई ठोस कारण नहीं है। लंबोदर (राजपाल यादव) को आर्थिक तंगी है। तीनों एक दिन ‘सी कंपनी’ का नाम लेकर जोशी के बेटे को धमकाते हैं और उनकी धमकी असर दिखाती है। इस सफलता से खुश होकर वे बड़े-बड़े लोगों को धमकाते हैं और अंडरवर्ल्ड की दुनिया के रॉबिनहुड बन जाते हैं। चैनल वाले इस पर रियलिटी शो आरंभ कर देते हैं। जिसमें लोग अपनी समस्याएँ बताते हैं और ‘सी कंपनी’ उनकी समस्या सुलझाती है। ‘सी कंपनी’ के पीछे कौन लोग हैं, ये किसी को भी पता नहीं है। निर्देशक सचिन यार्डी सिर्फ इसी हिस्से पर फिल्म बनाते तो बेहतर होता, लेकिन उन्होंने बेवजह कहानी को लंबा खींचा। एक भी दृश्य ऐसा नहीं है, जिस पर दिल खोलकर हँसा जाए। एक गाना सेलिना पर एक संजय दत्त पर फिल्माकर डाल दिए गए। करण जौहर और महेश भट्ट भी बीच में फिल्म की वैल्यू बढ़ाने के लिए नजर आए, लेकिन इनका ठीक से उपयोग नहीं किया गया।
अभिनय की बात की जाए तो तुषार के अंदर सीमित प्रतिभा है और वे एक स्तर से ऊपर नहीं उठ सकते। राइमा सेन के चंद दृश्य हैं। अनुपम खेर भी एक जैसा अभिनय करने लगे हैं। राजपाल यादव की हँसाने की कोशिशें नाकाम रहीं। मिथुन चक्रवर्ती ने एकता कपूर के धारावाहिकों की तरह बोर किया। सेलिना पर फिल्माया गया गाना ठीक है।
कुल मिलाकर ‘सी कंपनी’ भी उन हास्य फिल्मों की तरह है, जिन्हें देखकर हँसने के बजाय रोना आता है।