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हिंसा और नफरत का ‘गुलाल’

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हमें फॉलो करें गुलाल
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बैनर : जी लाइमालइट
निर्देशक : अनुराग कश्यप
गीत-संगीत : पीयूष मिश्रा
कलाकार : केके मेनन, आदित्य श्रीवास्तव, दीपक डोब्रियाल, जेसी रंधावा, माही गिल, पीयूष मिश्रा, आदित्य श्रीवास्तव
* 8 रील * ए-सर्टिफिकेट
रेटिंग : 3/5

‘गुलाल’ की कहानी अनुराग कश्यप ने आठ वर्ष पहले लिखी थी। उनका कहना है कि जब वे बेहद कुंठित थे और कहानी के जरिये उन्होंने अपना गुस्सा निकाला। ये बात और है कि इस फिल्म के लिए उन्हें कोई निर्माता नहीं मिला और इसी बीच उन्होंने कुछ फिल्में बना डालीं।

‘गुलाल’ में कई कहानियाँ हैं, जिसे ढेर सारे चरित्रों के जरिये पेश किया गया है। छात्र राजनीति, राजपूतों के अलग राज्य की माँग, नाजायज औलाद का गुस्सा, प्रेम कहानी, युवा आक्रोश का गलत इस्तेमाल जैसे मुद्दों को उन्होंने फिल्म में दिखाया है। फिल्म का प्रस्तुतिकरण अनुराग ने यथार्थ के करीब रखा है, इस वजह से फिल्म के किरदार गालियों से भरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं।

कहानी का मुख्य किरदार है दिलीप (राजसिंह चौधरी), जो एक सीधा-सादा लड़का है और कॉलेज में आगे की पढ़ाई करने के लिए आया है। वह रांसा (अभिमन्यु सिंह) के साथ रहता है, जो मस्तमौला और बेखौफ इनसान है।

बना (केके मेनन) राजपूतों के पृथक राज्य के लिए धन और नौजवानों को इकट्ठा करता है। छात्र राजनीति में उसकी रुचि है क्योंकि युवाओं के माध्यम से वह धन जुटाता है।

रांसा को वह अपनी पार्टी राजपूताना से जनरल सेक्रेटरी का चुनाव लड़वाता है, लेकिन पारिवारिक दुश्मनी के चलते चुनाव के पहले रांसा का कत्ल हो जाता है। ऐन मौके पर दिलीप को चुनाव लड़वा दिया जाता है और वह चुनाव में किरण को हरा देता है।

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अपनी हार से बौखलाए किरण और उसका भाई करण किसी भी तरह जनरल सेक्रेटरी का पद पाना चाहते हैं, इसलिए दिलीप को किरण अपने प्यार के जाल में फँसाती है। जनरल सेक्रेटरी बनने के बावजूद दिलीप, बना की सिर्फ कठपुतली बनकर रह जाता है। वह विद्रोह करता है और उसे बना की असलियत मालूम पड़ती है। ताकत, हिंसा, फरेब, लालच, षड्‍यंत्र, बेवफाई और नफरत का दिलीप शिकार बन जाता है।

‘गुलाल’ की बेहतरीन शुरुआत से जो आशा बँधती है, वो अंत में पूरी नहीं हो पाती। नए किरदार कहानी से जुड़ते जाते हैं और उसका विस्तार होता है, लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म अनुराग कश्यप के हाथ से निकल जाती है। लेखक के रूप में वे कहानी को ठीक से समेट नहीं पाए। राजनीति को लेकर शुरू की गई बात प्रेम कहानी पर खत्म होती है। कई मुद्दों और चरित्रों को अधूरा छोड़ दिया गया है।

राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी में नयापन नहीं है और इस तरह की फिल्में पहले भी आ चुकी हैं। खून-खराबे के खेल में पुलिस को लगभग भुला ‍ही दिया गया है और ऐसा लगता है चारों ओर जंगलराज है। फिल्म के अंत में बना को जब दिलीप गोली मार देता है, तब दोनों के बीच काफी लंबे संवाद हैं। वो भी ऐसे समय जब दिलीप को गोली लगी हुई है।

लेखक के बजाय अनुराग निर्देशक के रूप में ज्यादा प्रभावित करते हैं। एक ही दृश्य के माध्यम से उन्होंने कई बातें कही हैं। चरित्र को स्थापित करने में ज्यादा फुटेज बरबाद नहीं किए गए हैं। दर्शकों को दृश्यों के माध्यम से समझना पड़ता है कि कौन क्या है और ये बात फिल्म में आगे आने वाले दृश्यों से स्पष्ट होती है, इसलिए सारी बातों को याद रखना पड़ता है।

पीयूष मिश्रा के लिखे गीत फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। उनकी लिखी हर लाइन सुनने लायक है। गुरुदत्त से अनुराग कश्यप बेहद प्रभावित हैं, इसलिए एक गीत में ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’ का भी उपयोग किया गया है। फिल्म के संवाद तीखे हैं और तीर की तरह चुभते हैं। राजीव राय की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। रंग-बिरंगी रोशनी के जरिये कलाकारों के भाव को अच्छी तरह उभारा गया है।

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अभिनय की दृष्टि से सारे कलाकार एक से बढ़कर एक हैं। केके मेनन (बना), राजसिंह चौधरी (दिलीप), अभिमन्यु सिंह (रांसा), पंकज झा (जडवाल), दीपक डोब्रियाल, पीयूष मिश्रा और आयशा मोहन ने अपने चरित्रों को जिया है। जेसी रंधावा को ज्यादा मौका नहीं मिला है।

यदि आप अनुराग कश्यप की डार्क फिल्में पसंद करते हैं तो ‘गुलाल’ आपको अच्छी लगेगी।

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