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3 इडियट्स : काबिलियत और कामयाबी का अंतर

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समय ताम्रकर

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बैनर : विधु विनोद चोपड़ा प्रोडक्शन्स
निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा
निर्देशक : राजकुमार हिरानी
लेखक : राजकुमार हिरानी, अभिजीत जोशी, विधु विनोद चोपड़ा
गीत : स्वानंद किरकिरे
संगीत :शांतनु मोइत्रा
कलाकार : आमिर खान, करीना कपूर, आर. माधवन, शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ओमी, मोना सिंह, परीक्षित साहनी, जावेद जाफरी
यू/ए * 20 रील * 2 घंटे 50 मिनट
रेटिंग : 3.5/5

राजकुमार हिरानी की खासियत है कि वे गंभीर बातें मनोरंजक और हँसते-हँसाते कह देते हैं। जिन्हें वो बातें समझ में नहीं भी आती हैं, उनका कम से कम मनोरंजन तो हो ही जाता है।

चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव पाइंट समवन' से प्रेरित फिल्म '3 इडियट्‌स' के जरिये हिरानी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली, पैरेंट्‌स का बच्चों पर कुछ बनने का दबाव और किताबी ज्ञान की उपयोगिता पर मनोरंजक तरीके से सवाल उठाए हैं।

हर विद्यार्थी एक न एक बार यह सोचता है कि जो वो पढ़ रहा है, उसकी क्या उपयोगिता है। वर्षों पुरानी लिखी बातों को उसे रटना पड़ता है क्योंकि परीक्षा में नंबर लाने हैं, जिनके आधार पर नौकरी मिलती है। उसे एक ऐसे सिस्टम को मानना पड़ता है, जिसमें उसे वैचारिक आजादी नहीं मिल पाती है।

माता-पिता भी इसलिए दबाव डालते हैं क्योंकि समाज में योग्यता मापने का डिग्री/ग्रेड्स पैमाने हैं। कई लड़के-लड़कियाँ इसलिए डिग्री लेते हैं ताकि उन्हें अच्छा जीवन-साथी मिले।

इन सारी बातों को हिरानी ने बोझिल तरीके से या उपदेशात्मक तरीके से पेश नहीं किया है बल्कि मनोरंजन की चाशनी में डूबोकर उन्होंने अपनी बात रखी है। आमिर-हिरानी कॉम्बिनेशन’ के कारण अपेक्षाएँ इस फिल्म से बहुत बढ़ गई हैं और ये दोनों प्रतिभाशाली व्यक्ति निराश नहीं करते हैं।

रणछोड़दास श्यामलदास चांचड़ का निक नेम रांचो है। इंजीनियरिंग कॉलेज में रांचो (आमिर खान), फरहान कुरैशी (आर माधवन) और राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) रूम पार्टनर्स हैं।

फरहान वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर बनना चाहता है, लेकिन उसके पैदा होने के एक मिनट बाद ही उसे इंजीनियर बनना है ये उसके हिटलर पिता ने तय कर दिया था। वह मर-मर कर पढ़ रहा है।

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राजू का परिवार आर्थिक रूप से बेहद कमजोर है। भविष्य का डर उसे सताता रहता है। विज्ञान का छात्र होने के बावजूद वह तमाम अंधविश्वासों से घिरा हुआ है। पढ़ाई से ज्यादा उसे पूजा-पाठ और हाथ में पहनी ग्रह शांति की अँगूठियों पर है। वह डर-डर कर पढ़ रहा है।

रांचो एक अलग ही किस्म का इंसान है। बहती हवा-सा, उड़ती पतंग-सा। वह ग्रेड, मार्क्स, किताबी ज्ञान पर विश्वास नहीं करता है। आसान शब्दों में कही बात उसे पसंद है। उसका मानना है कि जिंदगी में वो करो, जो तुम्हारा दिल कहे। वह कामयाबी और काबिलियत का फर्क अपने दोस्तों को समझाता है।

रांचो के विचारों से कॉलेज के प्रिंसीपल वीर सहस्त्रबुद्धे (बोमन ईरानी) बिलकुल सहमत नहीं है। वे जिंदगी की चूहा-दौड़ में हिस्सा लेने के लिए एक फैक्ट्री की तरह विद्यार्थियों को तैयार करते हैं।

पढ़ाई खत्म होने के बाद रांचो अचानक गायब हो जाता है। वर्षों बाद रांचो के दोस्तों को उसके बारे में क्लू मिलता है और वे उसे तलाशने के लिए निकलते हैं। इस सफर में उन्हें रांचो के बारे में कई नई बातें पता चलती हैं।

कहानी को स्क्रीन पर कहने में हिरानी माहिर हैं। फ्लेशबैक का उन्होंने यहाँ उम्दा प्रयोग किया है। हीरानी और अभिजात जोशी ने ज्यादातर दृश्य ऐसे लिखे हैं जो हँसने पर, रोने पर या सोचने पर मजबूर करते हैं।

अपनी बात कहने के लिए उन्होंने मसाला फिल्मों के फॉर्मूलों से भी परहेज नहीं किया। माधवन का नाटक कर हवाई जहाज रूकवाना, करीना कपूर को शादी के मंडप से भगा ले जाना, जावेद जाफरी से आमिर का पता पूछने वाले सीन देख लगता है मानो डेविड धवन की फिल्म देख रहे हों।

पहले हॉफ में सरपट भागती फिल्म दूसरे हाफ में कहीं-कहीं कमजोर हो गई है। खासतौर पर मोनासिंह के माँ बनने वाला सीन बेहद फिल्मी हो गया है।

आमिर की फिल्म में एंट्री और रेगिंग वाला दृश्य, चमत्कार/बलात्कार वाला दृश्य, रांचो द्वारा बार-बार साबित करना कि पिया (करीना कपूर) ने गलत जीवन-साथी चुना है, ढोकला-फाफड़ा-थेपला-खाखरा-खांडवा वाला सीन, राजू के घर की हालत को व्यंग्यात्मक शैली (50 और 60 के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की तरह) में पेश किया गया सीन, बेहतरीन बन पड़े हैं।

हिरानी पर अपनी पुरानी फिल्मों का प्रभाव नजर आया। वहाँ मुन्ना भाई था, यहाँ रांचो है। वहाँ बोमन ईरानी डीन थे, यहाँ वे प्रिंसीपल हैं। वहाँ मुन्ना भाई डीन की लड़की को चाहता था, यहाँ रांचो प्रिंसीपल की लड़की को चाहता है। हालाँकि इन बातों से फिल्म पर कोई खास असर नहीं पड़ता, लेकिन फिल्मकार पर दोहराव का असर दिखाई देता है।

संवाद चुटीले है। 'इस देश में गारंटी के साथ 30 मिनट में पिज्जा आ जाता है, लेकिन एंबुलेंस नहीं', 'शेर भी रिंगमास्टर के डर से कुछ सीख जाता है लेकिन उसे वेल ट्रेंड कहा जाता है वेल एजुकेटेड नहीं’ जैसे संवाद फिल्म को धार प्रदान करते हैं।

अभिनय में सभी कलाकारों ने अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। अपनी उम्र से आधी उम्र का किरदार निभाना आसान नहीं था, लेकिन आमिर ने यह कर दिखाया। आज की युवा पीढ़ी के हाव-भाव को उन्होंने बारीकी से पकड़ा। तेज तर्रार और अपनी शर्तों पर जीने वाले रांचो को उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ पर्दे पर जीवंत किया।

आमिर खान के फिल्म में होने के बावजूद शरमन जोशी और माधवन अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। हालाँकि माधवन फिटनेस के मामले में मार खा गए। एनआरआई चतुर के रूप में ओमी ने बेहतरीन अभिनय किया है।

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बोमन ईरानी ने फिर साबित किया है कि वे कमाल के अभिनेता हैं। ओवर एक्टिंग और एक्टिंग के बीच की रेखा पर वे कुशलता से चले हैं। आमिर और उनके बीच के दृश्य देखने लायक बन पड़े हैं। करीना कपूर के रोल की लंबाई कम है, इसके बावजूद वे अपनी छाप छोड़ती हैं।

शांतुन मोइत्रा का संगीत सुनने में भले ही अच्छा नहीं लगता हो, लेकिन स्क्रीन पर देखते समय अलग ही असर छोड़ता है। 'जूबी-जूबी' गाने का फिल्मांकन उम्दा है।

पिछले दो बार से (2007 तारे जमीं पर, 2008 गजनी) वर्ष का समापन बॉलीवुड बेहतरीन फिल्म के जरिये कर रहा है और 2009 में हैट्रिक पूरी हो गई है। अनूठे विषय, चुटीले संवाद और शानदार अभिनय के कारण यह फिल्म देखी जा सकती है।

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