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अलीगढ़ : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

नैतिकता और कानून देश दर देश बदल जाते हैं। समलैंगिकता को लेकर पूरे विश्व में बहस छिड़ी हुई है। भारत में इसे आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध माना जाता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की कमेटी इस पर विचार कर रही है कि इसे अपराध की श्रेणी में रखना चाहिए या नहीं? स्वतंत्रता के हिमायती कहते हैं कि उन्हें अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, वहीं कई लोग इसे अपनी संस्कृति के खिलाफ मानते हैं। 
 
इन्हीं बातों को फिल्म 'अलीगढ़' के माध्यम से निर्देशक हंसल मेहता ने उठाया है। वास्तविक घटनाओं को आधार बनाकर फिल्म बनाई गई है कि किस तरह से समलैंगिक व्यक्ति को समाज हिकारत से देखता है और उसे नौकरी से हटा दिया जाता है मानो वह अपराधी हो। 
 
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में डॉ. श्रीनिवास रामचंद्र सिरस (मनोज बाजपेयी) मराठी पढ़ाते हैं। प्रोफेसर सिरस एकदम सामान्य हैं। अपनी एकांत जिंदगी में वे लता मंगेशकर के पुराने गाने सुनते हैं, दो पैग व्हिस्की के पीते हैं और अपनी शारीरिक जरूरत को पूरा करने के लिए अपनी चॉइस से खुश हैं। किसी का बुरा करने में उनका यकीन नहीं है।
 
आसपास के लोगों को उनसे जलन होती है तो वह कहते हैं 'बाहर का आदमी माना जाता हूं। शादीशुदा लोगों के बीच अकेला रहता हूं। उर्दू बोलने वाले शहर में मराठी सीखाता हूं।' 
 
साजिश रची जाती है। एक टीवी चैनल उनका स्टिंग ऑपरेशन करता है जिसमें सिरस एक रिक्शा चालक के साथ आलिंगन करते नजर आते हैं। उनके इस कृत्य को यूनिवर्सिटी की छवि पर धब्बा माना जाता है। समलैंगिकता के आरोप में उन्हें रीडर और आधुनिक भारतीय भाषाओं के अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर दिया जाता है। 
 
मीडिया इसे 'सेक्स स्कैंडल' मानते हुए चटखारे लेकर खबर को प्रकाशित करता है। हुदड़ंगी लोग प्रोफेसर सिरस का पुतला फूंकते है। दीपू नामक पत्रकार इसमें मानवीय कोण देखता है। उसे सिरस के समलैंगिक होने के बजाय इस बात से ऐतराज है कि कैसे कुछ लोग सिरस के बेडरूम में घुस कर उनके नितांत निजी क्षणों को कैमरे में कैद कर सावर्जनिक कर देते हैं। उनके खिलाफ क्यों कोई एक्शन नहीं लेता? 
 
दीपू का लेख छपने के बाद कुछ लोग सिरस की मदद के लिए आगे आते हैं। वे यूनिवर्सिटी के फैसले को अदालत में चुनौती देते हैं कि समलैंगिक होने की वजह से बर्खास्त करना गलत है। फैसला प्रोफेसर सिरस के पक्ष में जाता है। 
 
हालांकि अदालत में सिरस को कई चुभने वाले सवालों, जैसे, 64 वर्ष की उम्र में आप सेक्स कैसे कर लेते हैं? या पुरुष की भूमिका में कौन था?, का सामना करना पड़ता है, जिससे उन्हें लगता है कि अमेरिका में बस जाना चाहिए जहां इस तरह के लोगों को इज्जत हासिल है। 
हिंदी फिल्मों में आमतौर पर 'गे' को बहुत हास्यास्पद तरीके से दिखाया जाता है। कानों में बाली पहने, एकदम चिकने, कलाइयों को मोड़ कर बात करने वाले और नजाकत सी चाल वालों को 'गे' दिखाया जाता है जिनकी हट्टे-कट्टे पुरुषों को देख लार टपकती रहती है। 'अलीगढ़' में जिस तरह से इस किरदार को पेश किया गया है, हिंदी सिनेमा के इतिहास में शायद ही पहले कभी देखने को मिला हो। 
 
फिल्म इस पक्ष को जोरदार तरीके से रखती है कि 'समलैंगिकों' को देखने की दृष्टि में अब बदलाव की जरूरत है। साथ ही यह फिल्म मीडिया की भूमिका और नितांत क्षणों को कैमरे में कैद करने वाले तथाकथित पत्रकारों के खिलाफ भी आवाज उठाती है। 
 
सिरस की जिंदगी को थोड़ा विस्तार के साथ दिखाया जाता तो बेहतर होता। आखिर क्यों वे महाराष्ट्र छोड़कर अलीगढ़ आए? विद्यार्थियों के साथ उनके रिश्ते कैसे थे? इससे फिल्म में और गहराई आ सकती थी।   
 
शाहिद और सिटीलाइट जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले निर्देशक हंसल मेहता एक बार फिर दमदार फिल्म लेकर हाजिर हुए हैं। 
 
सिरस के किरदार पर निर्देशक ने खासी मेहनत की है। समलैंगिक होने पर समाज उन्हें हिकारत से देखता है और इससे सिरस अवसाद में चले जाते हैं। उनके अवसाद, दु:ख और एकाकीपन को निर्देशक ने लोकेशन और लाइट्स के इफेक्ट्‍स से बखूबी दिखाया है। किरदारों से ज्यादा सेट और बेजान चीजें बोलती हैं।  
 
फिल्म में उन्होंने बैकग्राउंड म्युजिक और संवादों का बहुत ही कम उपयोग किया है। खामोशी और वातावरण के जरिये उन्होंने बखूबी माहौल तैयार किया है जो सिरस के अंदर चल रही हलचल को सामने लाता है। 
 
फिल्म के आखिर में एक कमाल का सीन हंसल मेहता ने रचा है जिसमें श्मशान घाट में पत्रकार दीपू रोती हुई महिला से सवाल-जवाब करता है और उसी समय उसे प्रोफेसर सिरसा की मौत की खबर मिलती है। 
 
मनोज बाजपेयी ने अपने अभिनय के उच्चतम स्तर को छूआ है। उनका अभिनय हिला कर रख देता है। उनकी आंखे और चेहरे के भाव संवाद से ज्यादा बोलते हैं। अपने अंदर की उदासी और अकेलेपन को वे अपनी बॉडी लैंग्वेज के जरिये बखूबी पेश करते हैं। नि:संदेह अभिनय के स्तर पर यह फिल्म उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। 
 
राजुकमार राव खुद बड़ा नाम बन गए हैं, लेकिन हंसल मेहता से रिश्तों के चलते उन्होंने सहायक भूमिका निभाई है। हालांकि उनके ऑफिस का माहौल नकली लगता है, लेकिन अलग सोच रखने वाले पत्रकार की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई है, जो मोटर चालू/बंद करने की छोटी बात भूल जाता है, लेकिन मुद्दे की बात बखूबी पकड़ता है। एक पेइंग गेस्ट की मुसीबतों को राजकुमार के किरदार के माध्यम से अच्छे से दिखाया गया है। छोटे रोल में आशीष विद्यार्थी भी प्रभावित करते हैं। 
 
समलैंगिकता ऐसा मुद्दा है जिस पर बहस की जाए तो खत्म ही न हो। आप इसके पक्ष में हो या विपक्ष में, लेकिन 'अलीगढ़' इस मुद्दे को कुछ ऐसे सुलगते अंदाज में पेश करती है कि आप सोचने को मजबूर हो जाते हैं। 
 
बैनर : कर्मा पिक्चर्स, इरोज़ इंटरनेशनल
निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, संदीप सिंह, हंसल मेहता
निर्देशक : हंसल मेहता
संगीत : करण कुलकर्णी
कलाकार : मनोज बाजपेयी, राजकुमार राव, आशीष विद्यार्थी 
सेंसर सर्टिफिकेट : ए
रेटिंग : 3.5/5 

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