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बत्ती गुल मीटर चालू : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

टॉयलेट- एक प्रेम कथा में निर्देशक श्री नारायण सिंह ने गांव में शौचालय की शोचनीय स्थिति पर फिल्म बनाई थी। अब उन्होंने बिजली समस्या और बिजली के बढ़े हुए बिलों का मुद्दा 'बत्ती गुल मीटर चालू' में उठाया है। इस मुद्दे के साथ उन्होंने प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती/दुश्मनी का चिर-परिचित फॉर्मूला भी डाला है। मनोरंजन और सोशल इश्यु का यह मेल इस बार काम नहीं कर पाया है। 
 
टिहरी (उत्तराखंड) में रहने वाले सुशील कुमार उर्फ एसके (शाहिद कपूर), ललिता नौटियाल (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (द्वियेंदु शर्मा) बहुत अच्छे दोस्त हैं। एसके एक छोटा-मोटा वकील है। ललिता फैशन डिजाइनर है। सुंदर लोन लेकर प्रिंटिंग प्रेस खोलता है। ललिता को दोनों चाहते हैं। ललिता को दोनों में से एक को चुनना है। दोनों ललिता के साथ एक सप्ताह बारी-बारी से डेटिंग करते हैं और आखिरकार सुंदर को ललिता चुन लेती है। इस बात का एसके को बहुत बुरा लगता है। 
 
सुंदर की प्रिटिंग प्रेस का बिजली का बिल 54 लाख रुपये आ जाता है। वह बिजली विभाग के चक्कर लगाता है, लेकिन कोई हल नहीं निकलता। बिजली काट दी जाती है और इससे उसका नुकसान होने लगता है। वह एसके से मदद मांगता है, लेकिन जला-भुना एसके मदद नहीं करता। इस प्रेम- त्रिकोण का क्या होता है? सुंदर 54 लाख रुपये के बिल से कैसे छुटकारा पाता है? यह फिल्म का सार है। 
 
सिद्धार्थ-गरिमा ने मिलकर यह फिल्म लिखी है। इन लोगों ने पहले मुद्दा सोचा और फिर उस पर कहानी बनाई। कहने को इनके पास ज्यादा कुछ नहीं था, इसलिए प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती-दुश्मनी वाला एंगल फिल्म में डाला, जो केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आता है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो निहायत ही फालतू हैं और इनका फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है। 
 
जैसे फिल्म की शुरुआत में जलते टायर के बीच से निशाने पर तीर लगाने की प्रतियोगिता, जो सिर्फ शाहिद को हीरो के रूप में स्थापित करने के लिए है, लेकिन फिल्म से कोई खास ताल्लुक नहीं रखता। श्रद्धा को देखने आने वाला लड़के का दृश्य, श्रद्धा-शाहिद के बीच विवाद होने के बाद शाहिद से श्रद्धा के मिलने जाने वाला सीन जैसे कई दृश्य हैं जो बेमतलब के हैं। 
 
सुंदर-ललिता-एसके की कहानी बस में एक मुसाफिर दूसरे को सुनाता है। ये भी बीच-बीच में आते रहते हैं। ये ट्रैक निहायत ही उबाऊ है और सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाता है। 
 
फिल्म का असल मुद्दा है 'बिजली प्रदान करने वाली कंपनी का भ्रष्टाचार', लेकिन यह मुद्दा भी बेहद ही हौले से छुआ गया है। बिजली की मांग और उत्पादन में होने वाले अंतर, बिजली की चोरी, बिजली विभाग के कर्मचारी और उद्योगपति में सांठ-गांठ जैसी कई मुद्दों के बारे में बात ही नहीं की गई। 
 
54 लाख के बिल का मुद्दा जब अदालत में जाता है तब भी फिल्म में गंभीरता नहीं आती। मनोरंजन के नाम पर अदालत वाले सीन हल्के हैं। साथ ही यह मुद्दा इतनी आसानी से सुलट जाता है कि आप हक्के-बक्के रह जाते हैं। लेखकों ने सारी सहूलियत लेते हुए कोर्ट रूम ड्रामा लिखा है।
 
फिल्म में कई बातों को अधूरा छोड़ दिया गया है। जैसे- शाहिद के पिता फिर से शादी करना चाहते हैं, इस बात को बाद में भूला ही दिया गया।   
 
कहने का मतलब यह है कि फिल्म का लेखन बेहद कमजोर है। न तो मुद्दा ठीक से उठाया गया है और न ही फिल्म को मनोरंजक बनाया गया है। फिल्म के सारे किरदार इतना ज्यादा बोलते हैं और इतने लाउड हैं कि कान पक जाते हैं। ऐसा लगता है कि फिल्म की बजाय रेडियो पर नाटक सुन रहे हैं। 
 
फिल्म में लोकल फ्लेवर डालने के लिए कुमाऊं भाषा का खूब प्रयोग किया गया है जिससे इस भाषा को न समझने वालों को संवाद समझने में तकलीफ होती है। खासतौर पर फिल्म के पहले घंटे में इनका इस्तेमाल बहुत ज्यादा है। 'ठहरा' और 'बल' शब्दों का हद से ज्यादा प्रयोग किया गया है। 
 
निर्देशक के रूप में श्री नारायण सिंह प्रभावित नहीं कर पाए। वे समझ ही नहीं आए कि फिल्म को कहां गंभीर रखना है। साथ ही वे फिल्म के एडिटर भी हैं इसलिए फिल्म को छोटा करने का साहस भी नहीं जुटा पाए। 2 घंटे 55 मिनट की यह फिल्म बेहद लंबी है जबकि कहने के लिए निर्देशक और लेखक के पास पर्याप्त मसाला ही नहीं था। 
 
शाहिद कपूर का अभिनय ठीक-ठाक है। खुद के किरदार को 'चलता-पुर्जा' दिखाने में वे कई बार कुछ ज्यादा ही बहक गए। श्रद्धा कपूर और द्वियेन्दु शर्मा का अभिनय ठीक है, लेकिन आधी फिल्म के बाद इन्हें भूला ही दिया गया है। यामी गौतम को कमजोर संवाद मिले ताकि उनके सामने शाहिद कपूर भारी वकील लगे। फरीदा जलाल और सुप्रिया पिलगांवकर ने यह फिल्म क्यों की, समझ के परे है। सुधीर पांडे, समीर सोनी के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। 
 
फिल्म का संगीत अच्छा है। 'गोल्ड तांबा' और 'हर हर गंगे' अच्छे बन पड़े हैं। गीतों को अच्‍छा लिखा गया है, लेकिन इनका फिल्मांकन खास नहीं है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी और अन्य तकनीकी पक्ष औसत दर्जे के हैं। 
 
कुल मिलाकर इस फिल्म को देख वैसी ही फीलिंग आती है जैसी बत्ती गुल और मीटर चालू रहने पर होती है।  
 
बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता : नितिन चंद्रचूड़, श्री नारायण सिंह, कुसुम अरोरा, निशांत पिट्टी, कृष्ण कुमार, भूषण कुमार
निर्देशक : श्री नारायण सिंह
संगीत : अनु मलिक, संचेत टंडन, परम्परा बैंड, नुसरत फतेह अली खान, रोचक कोहली
कलाकार : शाहिद कपूर, श्रद्धा कपूर, यामी गौतम, दिव्येंदु शर्मा, फरीदा जलाल, सुधीर पांडे, सुप्रिया पिलगांवकर‍
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 55 मिनट 35 सेकंड 
रेटिंग : 1.5/5

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