ज्यादातर हिंदी फिल्मों के सीक्वल सिर्फ पुराने नाम का फायदा उठाने के लिए बनाए जाते हैं। कहने को कुछ भी नहीं रहता है और बेवजह बात को आगे बढ़ाया जाता है। 2005 में निर्माता आदित्य चोपड़ा ने अभिषेक बच्चन और रानी मुकर्जी को लेकर बंटी और बबली बनाई थी। बॉक्स ऑफिस पर यह सफल रही थी, लेकिन बहुत बड़ी हिट नहीं थी। न ही इसकी गिनती महान फिल्मों में होती है। इसलिए 16 साल बाद इसका दूसरा भाग बनाने का कोई तुक नजर नहीं आता है।
बंटी और बबली 2 को देख हैरत होती है कि क्या यह यशराज फिल्म्स के बैनर तले बनी है जिसने कई उम्दा फिल्में प्रोड्यूस की है। यह फिल्म इतनी उबाऊ है कि दो घंटे भी बीस घंटे के बराबर लगते हैं। ऊलजलूल हरकतें दिखा कर फिल्म को पूरा किया है गया है जिसमें न लॉजिक है और न एंटरटेनेमंट।
बंटी और बबली अब अपराध की दुनिया छोड़ चुके हैं और आम आदमी की तरह गृहस्थ जीवन जी रहे हैं। आज के दौर के नए बंटी और बबली सामने आते हैं जो लोगों को बेवकूफ बना कर पैसा बनाते हैं और पुराने बंटी और बबली का लोगो का उपयोग करते हैं। पुलिस को शक पुराने बंटी और बबली पर जाता है। जेल में बंद कर दिया जाता है, लेकिन ठगने की घटनाएं रूकती नहीं तो समझ आता है कि नए बंटी और बबली आ चुके हैं। नयों को पकड़ने के लिए पुरानों की मदद पुलिस लेती है और वे इसलिए मदद करते हैं क्योंकि वे इस बात से नाराज हैं कि उनके नाम का इस्तेमाल किया जा रहा है।
फिल्म का शुरुआती हिस्सा बहुत ज्यादा लाउड है। हर किरदार इतनी बक बक करता है कि कोफ्त होने लगती है। पता नहीं उत्तर भारत के लोगों को हर फिल्म में इतना वाचाल क्यों दिखाया जाता है। हर कैरेक्टर बेवजह बोलता रहता है। शायद लेखक और निर्देशक को लगा कि इससे दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होगा, लेकिन इस बात का असर उल्टा होता है।
नए बंटी और बबली अमीरों को इतनी आसानी से ठग लेते हैं मानो दुनिया में सारे लोग बेवकूफ हों। उद्योगपति हो या नेता सभी इनके झांसे में आसानी से आ जाते हैं। ये दुनिया का ऐसा देश बता देते हैं जो पृथ्वी पर कही है ही नहीं, ये गंगा नदी को किराये पर दे देते हैं। खूब बड़ी-बड़ी फेंकी हैं, लेकिन बिना लॉजिक के की गई ये सारी बातें बेवकूफाना लगती है। 10 साल का बच्चा भी इन पर विश्वास नहीं करे।
नए बंटी और बबली को पुराने बंटी और बबली पकड़ लेते हैं। थाने ले जाते हैं। लेकिन वे चकमा देकर निकल जाते हैं। इसके बाद नए और पुराने बंटी-बबली का कई बार सामना होता है। बातें होती हैं। पार्टी होती हैं, लेकिन वे इनको पहचान नहीं पाते हैं।
पुलिस को कभी अपराधियों का सुराग नहीं मिलता, लेकिन सीनियर बंटी और बबली हर बार जूनियर बंटी और बबली के पास पहुंच जाते हैं। कैसे और क्यों जैसे सवालों के जवाब देने की जवाबदारी किसी ने नहीं निभाई।
दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए खूब सीन रचे गए हैं। सिचुएशन बनाई गई हैं। संवाद रखे गए हैं, लेकिन ये इतने बचकाने है कि इन्हें देख खीज पैदा होती है। ऐसा लगता है कि आपको प्रताड़ित किया जा रहा हो।
फिल्म की कहानी आदित्य चोपड़ा की है जिसमें बिलकुल भी दम नहीं है। सिर्फ सीक्वल बनाना था इसलिए कुछ भी उन्होंने लिख मारा है। स्क्रिप्ट, संवाद और डायरेक्शन की जवाबदारी वरुण वी. शर्मा ने उठाई है और सभी मोर्चों पर बुरी तरह असफल रहे हैं। उनकी स्क्रिप्ट बचकानी है जिस पर लंबी और उबाऊ फिल्म बना डाली है। संवादों में दम नहीं है। निर्देशक के रूप में घटिया फिल्म बनाने की पूरी जवाबदारी भी उनकी है।
बंटी के रूप में अभिषेक बच्चन की जगह सैफ अली ने ली है। इस किरदार में वे मिसफिट हैं। रानी मुकर्जी की अच्छी एक्टिंग बेकार चली गई है। सिद्धांत चतुर्वेदी ने दम दिखाया है, लेकिन शर्वरी वाघ निराश करती हैं। पुरानी बंटी और बबली की तरह इस फिल्म में भी एक पुलिस वाले का किरदार रखा गया है जो पंकज त्रिपाठी ने निभाया है, लेकिन वे बोर करते हैं। छोटे-छोटे रोल में प्रेम चोपड़ा, वृजेन्द्र काला, असरानी, यशपाल शर्मा दिखाई दिए हैं।
शंकर-लॉय-एहसान एक भी ऐसा गाना नहीं दे पाए जो गुनगुनाने लायक भी हो। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है।
कुल मिलाकर बंटी और बबली 2 देखने के बाद लगता है कि इन दोनों ने दर्शकों को ही ठग लिया है।
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बैनर : यशराज फिल्म्स
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निर्माता : आदित्य चोपड़ा
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निर्देशक : वरुण वी. शर्मा
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संगीत : शंकर-एहसान-लॉय
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कलाकार : सैफ अली खान, रानी मुकर्जी, पंकज त्रिपाठी, सिद्धांत चतुर्वेदी, शर्वरी वाघ, प्रेम चोपड़ा, असरानी
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सेंसर सर्टिफिकेट : यूए
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2 घंटे 13 मिनट 45 सेकंड
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रेटिंग : 0.5/5