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दंगल : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें दंगल : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

दंगल को सिर्फ स्पोर्ट्स फिल्म कहना गलत होगा। इस फिल्म में कई रंग हैं। लड़कियों के प्रति समाज की सोच, रूढि़वादी परंपराएं, एक व्यक्ति का सपना और जुनून, लड़के की चाह, अखाड़े और अखाड़े से बाहर के दांवपेंच, देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना, चैम्पियन बनने के लिए जरूरी अनुशासन और समर्पण जैसी तमाम बातें इस दंगल में समेटी गई हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट कमाल की है और पूरी फिल्म बहती हुई एक मनोरंजन की नदी के समान है जिसमें दर्शक डुबकी लगाते रहते हैं। 
 
जैसा की सभी जानते हैं कि यह फिल्म पहलवान महावीर सिंह फोगाट के जीवन से प्रेरित है। बिलाली गांव में रहने वाला महावीर देश के लिए स्वर्ण पदक जीतना चाहता है। पहलवानी में उसने प्रतिष्ठा और प्रसिद्धी तो कमाई, लेकिन पैसा नहीं कमा पाया और इसी कारण उसे पहलवानी छोड़ एक छोटी-सी नौकरी करना पड़ी। 


 
महावीर ने सोचा कि अपने बेटों के जरिये वह अपने सपने को पूरा करेगा, लेकिन चार लड़कियां होने पर उसने अपने सपने को पेटी में यह सोच कर बंद कर दिया कि लड़कियों का जन्म तो चूल्हे-चौके और झाडूू-पोछे के लिए होता है। एक दिन उसकी बेटियां गीता और बबीता लड़कों की पिटाई करती है और यही से महावीर को महसूस होता है- म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के?  
 
छोटे से गांव में छोरियों को छोरों से कम ही माना जाता है। जिसके घर सिर्फ लड़कियां पैदा होती हैं उसे लोग तुच्छ नजरों से देखते हैं। जिस गांव में लड़कियां बाल कटा कर ही ग्रामीणों के लिए चर्चा का विषय बन जाती हों वहां पर महावीर, गीता और बबीता को पहलवानी सिखाने का साहसिक फैसला लेता है और उन्हें चैम्पियन बना कर ही दम लेता है। 
 
एक अखबार में महावीर सिंह फोगाट के बारे में लेख पढ़ कर इस पर फिल्म बनाने का आइडिया पैदा हुआ था, जिसे निर्देशक नितेश तिवारी ने फिल्म के रूप में बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है। फोगाट की कहानी बहुत ही दमदार और प्रेरणादायी है। यह दर्शाती है कि कुछ पाने की चाह के आगे साधनहीन होने की बात बौनी साबित हो जाती है। 
 
फिल्म यह बात बखूबी दर्शाती है कि फोगाट को दो मोर्चों पर लड़ना पड़ा। एक तो उसे अपना सपना पूरा करना था और दूसरा उस समाज से लड़ना था जो लड़कियों को कम आंकता है। उसकी तथा उसकी बेटियों की हंसी उड़ाई जाती है, लेकिन वह टस से मस नहीं होता। 
 
फिल्म इंटरवल तक इतनी तेज गति से भागती है कि दर्शकों की सांसें थम जाती है। फिल्म का पहला सीन ही इतना लाजवाब है कि तालियों और सीटियों का खाता फौरन खुल जाता है। इसके बाद एक से बढ़कर एक सीन की निर्देशक नितेश तिवारी झड़ी लगा देते हैं। चाहे वो लड़के पैदा करने के टोटके हो, बच्चियों को पहलवानी का प्रशिक्षण देने के दृश्य हों, पिता की सख्ती हो, छोरियों के छोरों से कुश्ती लड़ने के दृश्य हों, सभी इतनी बढ़िया तरीके से गूंथे गए हैं कि दर्शक बहाव में बहते चले जाते हैं। कहानी को परत दर परत प्रस्तुत किया गया है और इंटरवल के समय सवाल उठता है कि निर्देशक ने इतना कुछ दिखा दिया है कि अब उसके पास दिखाने के लिए बचा क्या है? 
 
इंटरवल के बाद 'दंगल' स्पोर्ट्स फिल्म बन जाती है। थोड़ा ग्राफ नीचे आता है, क्योंकि स्पोर्ट्स फिल्में कमोबेश एक जैसी ही लगने लगती हैं, लेकिन जल्दी ही स्थिति संभल जाती है। हो सकता है कि कई लोगों को खेल में रूचि न हो या कुश्ती के बारे में जानकारी न रखते हो, लेकिन फिल्म के यह हिस्सा भी उन्हें पसंद आएगा। कुश्ती की तकनीक इस कुशलता से बताई गई है कि यह फिल्म कुश्ती के बारे में आपकी जानकारी में इजाफा करती है। गीता के राष्ट्रीय स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर तक के सफर को यहां पर दर्शाया गया है। 
 
खेल के अलावा यह बात भी जोरदार तरीके से दिखाई गई है कि एक छोटे से गांव से निकल कर बड़े शहर की चमक-दमक किस तरह खिलाड़ी का ध्यान भंग कर सकती है। यहां पर बाप और बेटी के द्वंद्व को भी दिखाया गया है। गीता का नया कोच, महावीर के प्रशिक्षण को खारिज कर देता है और गीता उसकी बातों में आ जाती है। पिता-पुत्री के बीच कुश्ती का मैच फिल्म का एक शिखर बिंदु है जिसमें वे दोनों शारीरिक रूप से कुश्ती लड़ते हैं, लेकिन असली लड़ाई उनके दिमाग के अंदर चल रही होती है। 

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आमतौर पर स्पोर्ट्स फिल्में खेल दिखाए जाने वाले दृश्यों में मार खा जाती हैं। नकलीपन हावी हो जाता है, लेकिन 'दंगल' में दिखाए गए कुश्ती के मैच इतने जीवंत हैं कि असल और नकल में भेद करना मुश्किल हो जाता है। फातिमा सना शेख ने युवा ‍गीता का किरदार निभाया है और उन्होंने इतनी सफाई से कुश्ती वाले दृश्य किए हैं कि वे सचमुच की कुश्ती खिलाड़ी लगी हैं।
 
इन कुश्ती दृश्यों को इतने रोचक तरीके से फिल्माया गया है कि सिनेमाहॉल,  स्टेडियम लगने लगता है और तनाव के मारे आप नाखून चबाने लगते हैं। राष्ट्रमंडल खेल में जब गीता स्वर्ण पदक जीतती है और तिरंगा को ऊपर जाते देख जो गर्व का भाव पैदा होता है उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। जब पार्श्व में 'जन-गण-मन' बजने लगता है तो सिनेमाहॉल में मौजूद सारे दर्शक में राष्ट्रप्रेम की भावना ऐसे हिलोरे लेती हैं कि वह स्वत: ही सम्मान में खड़ा हो जाता है। नितेश तिवारी ने इस सीक्वेंस को बखूबी फिल्माया है। 
 
निर्देशक के रूप में नितेश की पूरी फिल्म पर पकड़ है। पहले हाफ में उन्होंने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। हंसते-हंसाते उन्होंने गंभीर बातें कह डाली हैं। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो आपको ठहाका लगाने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर करते हैं। खासतौर पर महावीर के भतीजे का जो किरदार है वो अद्‍भुत है। उसके नजरिये से ही 'दंगल' दिखाई गई है और उसका वॉइस ओवर कमाल का है। 
 
अभिनय के मामले में फिल्म जबरदस्त है। कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा की तारीफ करना होगी कि उन्होंने हर भूमिका के लिए परफेक्ट एक्टर्स का चुनाव किया है। आमिर खान तो अपने किरदार में पूरी तरह डूब गए। वे महावीर लगे हैं, स्टार आमिर खान नहीं। वजन कम ज्यादा उन्होंने इस रोल के लिए किया है, लेकिन केवल इसके लिए ही तारीफ नहीं बनती। ये तो कई लोग कर सकते हैं। उनका अभिनय भी तारीफ के योग्य है। पहलवानों की बॉडी लैंग्वेज और हरियाणवी लहजे को जिस सूक्ष्मता के साथ पकड़ा है वो काबिल-ए-तारीफ है। अपने किरदार को उन्होंने धीर-गंभीर लुक दिया है। उन्होंने नए कलाकारों पर हावी होने के बजाय उन्हें भी उभरने का अवसर दिया है। 
 
ज़ायरा वसीम ने बाल गीता का किरदार निभाया है और उन्हें देख लगता ही नहीं कि यह लड़की एक्टिंग कर रही है। सुहानी भटनागर ने बाल बबीता बन उनका साथ खूब निभाया है। युवा गीता के रूप में फातिम सना शेख और युवा बबीता में रूप में सान्या मल्होत्रा अपना प्रभाव छोड़ती हैं। खासतौर पर फातिमा का अभिनय प्रशंसनीय है। महावीर के भतीजे के रूप में ऋत्विक साहोरे और अपारशक्ति खुराना ने कलाकारों ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। साक्षी तंवर अपनी मौजूदगी का अहसास कराती हैं।  
 
गाने फिल्म देखते समय अच्छे लगते हैं क्योंकि वे कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक हैं और किरदारों की मनोदशा को दर्शाते हैं। सेतु श्रीराम की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। कुश्ती वाले सीन उन्होंने बेहतरीन तरीके से फिल्माए हैं। फिल्म की लंबाई से शिकायत हो सकती है, लेकिन इस तरह की फिल्मों के इत्मीनान जरूरी है। 
 
महावीर सिंह फोगाट अपनी बेटी गीता को तभी 'साबास्स' कहता है जब वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक जीतती है। ऐसी ही साबासी आमिर और नितेश के लिए फिल्म देखने के बाद मुंह से निकलती है। 
 
बैनर : डिज्नी इंडिया स्टुडियो, आमिर खान प्रोडक्शन्स
निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर, आमिर खान, किरण राव 
निर्देशक : नितेश तिवारी
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : आमिर  खान, साक्षी तंवर, सान्या मल्होत्रा, फातिमा सना शेख
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 41 मिनट 
रेटिंग : 4/5  

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