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डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्षी : फिल्म समीक्षा

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हमें फॉलो करें डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्षी

समय ताम्रकर

डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्षी हमें लगभग 75 वर्ष पुराने जमाने में ले जाता है जब संचार के साधन सीमित थे। लोग बेहद साधारण थे और भारत गुलाम था। 1942 का कलकत्ता तब गहमा-गहमी का केन्द्र हुआ करता था और उस समय वहां की हवा में अजीब सी हलचल थी। द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर था और कलकत्ता के ऊपर उड़ते जापानी फाइटर्स प्लेन वहां का माहौल संदेहास्पद कर देते थे। 
 
कलकत्ता की ऐसी हालात की पृष्ठभूमि में फिल्म निर्देशक दिबाकर बैनर्जी ने 'डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्षी' को बनाया है। शरदेन्दु बन्धोपाध्याय ने जासूस ब्योमकेश बक्षी का पात्र रचा था जो बेहद लोकप्रिय रहा। उनकी लिखी कहानी और किरदार पर यह फिल्म आधारित है। 
ब्योमकेश अभी-अभी ग्रेज्युएट हुआ है और थोड़ी अकड़ में है। उसके पास अजीत आता है जिसके पिता केमिकल साइंटिस्ट है और लापता है। ब्योमकेश यह केस अपने हाथ में लेता है और कोलकाता में उस बोर्डिंग हाउस में जाता है जहां अजीत के पिता रहा करते थे। 
 
ब्योमकेश की मुलाकात वहां अनुकुल गुहा से होती है जो बोर्डिंग हाउस चलाते हैं। केस को सुलझाने की दृष्टि से ब्योमकेश उसी बोर्डिंग हाउस में रूक जाता है। जैसे-जैसे ब्योमकेश केस की तह में जाता है उसे महसूस होता है कि यह केस इतना छोटा नहीं है जितना वह समझ रहा था। इसमें जापानी आर्मी, चीनी ड्रग डीलर्स, फिल्म इंडस्ट्री के लोग और नेता शामिल हैं। इन सबके पीछे एक मास्टरमाइंड है जिसकी ब्योमकेश को तलाश है। 
 
फिल्म की कहानी जटिल है क्योंकि उसमें कई घटनाएं और किरदार शामिल हैं। फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है जटिलता बढ़ने लगती है क्योंकि इतनी सारी बातों को सिलसिलेवार याद रखना मुश्किल होने लगता है। लेकिन जो दर्शक सिरे को पकड़ कर चलते हैं उन्हें कहानी में मजा आता है और मास्टरमाइंड की तलाश वे भी ब्योमकेश के साथ शुरू कर देते हैं। 
 
निर्देशक ने कहानी को ब्योमकेश के नजरिये से दिखाया है। दर्शकों को ब्योमकेश की सोच के हिसाब से चलना होता है और वे भी उन परेशानियों से जूझते हैं जो ब्योमकेश के सामने आती हैं। अजीत के पिता का केस ब्योमकेश को हर बार लगता है कि उसने सुलझा दिया है, लेकिन जिसके खिलाफ सबूत जुटा कर वह उसे ढूंढ निकालता है, वहीं ऐसा क्लू मिलता है कि उसे महसूस होता है कि वह गलत है।   
 
चूंकि ब्योमकेश का पहला केस है इसलिए उसका कच्चापन भी उसके किरदार झलकता है। कई बार वह दर्शकों से दो कदम आगे खड़ा नजर आता है तो कई बार वह पीछे रह जाता है और अपनी बेवकूफी पर हंसता भी है।
 
फिल्म का पहला हाफ थोड़ा स्लो है और दूसरा हाफ जरूरत से ज्यादा तेज। इस गति के साथ तालमेल बिठाना आम दर्शक के लिए मुश्किल है। दूसरे हाफ में दिबाकर बैनर्जी ने ढेर सारी चीजों को शामिल कर लिया है और उन्हें भी समझ में आ गया कि ये सब बातें दर्शकों को समझने में मुश्किल होगी इसलिए क्लाइमेक्स में उन्होंने सारी बातों को दोहराया है ताकि दर्शक कुछ भूल गए हो तो उन्हें सब कुछ याद आ जाए। 
 
दिबाकर बैनर्जी ने एक जासूसी फिल्म बनाई है, लेकिन वे ऐसा रोमांच पैदा करने में सफल नहीं रहे कि दर्शक सीट से चिपके रहे। साथ ही फिल्म के विलेन तक पहुंचने की बैचेनी भी वे पैदा नहीं कर पाए। हालांकि फिल्म का हर संवाद और घटनाक्रम एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है और आप एक सीन या संवाद मिस नहीं कर सकते हैं, लेकिन फिल्म में वो थ्रिल या तनाव नहीं है जो जासूसी फिल्मों के लिए जरूरी होता है। अच्छी बात यह है कि कमियों के बावजूद फिल्म में दिलचस्पी अंत तक कायम रहती है। 
 
सुशांत सिंह राजपूत ने लीड रोल निभाया है और वे पूरी फिल्म में अपने किरदार में रहे। उन्होंने बॉडी लैंग्वेज, अभिनय, संवाद अदायगी से अपने किरदार को पकड़ कर रखा। स्वास्तिका मुखर्जी पूरी तरह ‍से निराश करती हैं और वे फिल्म की कमजोर कड़ी सिद्ध हुईं। दिव्या मेनन को ज्यादा मौका नहीं मिला। नीरज कबी का काम जबरदस्त है। एक सीन में उन्हें सिर्फ हंसना था और उन्होंने बेहतरीन तरीके से यह सीन किया। 
 
फिल्म का संपादन कमजोर है और यह कहानी की पोल खोलता है। शायद फिल्म एडिटर भी कन्फ्यूज हो गए हों। 
 
डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्षी में वो रोमांच नहीं है जिसकी आशा लिए दर्शक सिनेमाघर जाता है। 
 
बैनर : यशराज फिल्म्स, दिबाकर बैनर्जी प्रोडक्शन्स
निर्माता : आदित्य चोपड़ा
निर्देशक : दिबाकर बैनर्जी
संगीत : स्नेहा खानवलकर, दिबाकर बैनर्जी, मैड बॉय/मिंक
कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, स्वास्तिका मुखर्जी, आनंद तिवारी, दिव्या मेनन, मियांग चांग
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 30 मिनट 54 सेकंड
रेटिंग : 2.5/5 

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