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दम लगा के हईशा : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

दम लगा के हईशा ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी का सिनेमा याद दिलाती है। इन महान निर्देशकों की फिल्में बहुत ही सरल और हल्की-फुल्की हुआ करती थीं। 'दम लगा के हईशा' के किरदार अत्यंत सहज है जो जिंदगी को छोटी-मोटी परेशानियों से अपने स्तर पर जूझ रहे हैं। 
 
हरिद्वार में प्रेम (आयुष्मान खुराना) अपने पिता के साथ प्रेम ऑडियो एंड वीडियो सेंटर चलाता है जहां कैसेट्स बेची जाती हैं और गाने रिकॉर्ड किए जाते हैं। प्रेम अपने पिता से बेहद डरता है और अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण दसवीं कई प्रयास के बावजूद पास नहीं कर पाया। शादी की उसकी उम्र हो गई है। संध्या (भूमि पेडनेकर) नामक लड़की प्रेम के पिता को पसंद आ जाती है और वे पर दबाव डालकर प्रेम की शादी संध्या से करवा देते हैं। 
 
संध्या को प्रेम पसंद नहीं करता क्योंकि वह बहुत मोटी है। प्रेम से संध्या होशियार है। बीएड कर चुकी है। संध्या का प्रेम एक बार दोस्तों के आगे अपमान कर देता है तो वह घर छोड़ कर चली जाती है। तलाक के लिए आवेदन कर देती है। अदालत दोनों को साथ में 6 महीने रहने को कहती है। इसी बीच वे एक प्रतियोगिता में हिस्सा लेते हैं जिसमें पत्नी को पीठ पर लाद कर पति रेस में हिस्सा लेता है। यह रेस दोनों की दूरियां मिटा देती है। 
कहानी 1995 की है। जब कुमार सानू के गाने गली-गली गूंजते थे। ऑडियो कैसेट्स का प्रचलन था। लोग कैसेट्स खरीदने के बजाय अपने पसंदीदा गाने रिकॉर्ड करवाते थे। वीसीआर पर फिल्में देखी जाती थीं। इस माहौल को निर्देशक और लेखक शरत कटारिया ने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। छोटे-छोटे डिटेल्स का ध्यान रखा है। संवादों में भी उस दौर के झलक मिलती है। बैकग्राउंड म्युजिक में 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' सुनने को मिलता है जो उस दौर में दूरदर्शन पर बहुत दिखाया जाता था। 
 
एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवनशैली का भी बारीकी से चित्रण किया गया है। घर के कमरे कुछ इस तरह के होते थे कि दूसरे कमरे में क्या हुआ है ये बाहर वाले जान लेते हैं। इसकी मिसाल एक सीन में मिलती है जब प्रेम और संध्या के कमरे से आती आवाज सुन कर प्रेम की मां कहती है कि उनका बेटा सयाना हो गया है। 
फिल्म में इस तरह के कई बेहतरीन दृश्य हैं। लाइब्रेरी में जाकर दबी आवाज में संध्या और प्रेम का विवाद करना तथा ऑडियो कैसेट्स बदल-बदल कर गानों के जरिये लड़ने वाले सीन मनोरंजक हैं। 
 
प्रेम की मनोस्थिति को भी अच्छे तरीके से दिखाया गया है। वह दिल का अच्छा है। संध्या का दिल नहीं दुखाना चाहता है, लेकिन उसके मोटापे पर वह शर्मिन्दा होता है। उसे दोस्तों और लोगों की फिक्र रहती है कि वे उसकी मोटी बीवी के बारे में क्या सोचते हैं। एक सीन उसकी मनोदशा को अच्छी तरह दिखाता है। स्कूटर पर संध्या और प्रेम जाते हैं। संध्या का सैंडल गिर जाता है। प्रेम के चेहरे पर नाराजगी झलकती है, लेकिन वह जाकर सैंडल लेकर आता है, जिससे साबित होता है कि वह संध्या को पसंद भी करता है। संध्या और प्रेम के माता-पिता वाले दृश्य भी उम्दा हैं। 
 
फिल्म के क्लाइमेक्स में प्रेम-संध्या की जीत न भी दिखाई जाती तो भी बात बन सकती थी। यह जीत स्वाभाविक नहीं लगती। अच्छी बात यह है कि इस प्रतियोगिता पर ज्यादा फुटेज खर्च नहीं किए गए। इसी तरह संध्या के तलाक लेने वाला निर्णय चौंकाता है। यह बात ठीक है कि प्रेम उसका अपमान करता है, लेकिन बात इतनी बड़ी भी नहीं थी कि तलाक ले लिया जाए। चूंकि स्क्रीनप्ले मनोरंजक है कि इसलिए ये कमियां नहीं अखरती हैं। 
 
निर्देशक के रूप में शरत कटारिया प्रभावित करते हैं। उनके काम की ईमानदारी परदे पर झलकती है। फिल्म को उन्होंने बैलेंस रखा और कही भी जरूरत से ज्यादा इमोशन थोपने की कोशिश नहीं की। फिल्म की प्रोडक्शन डिजाइन टीम प्रशंसा की हकदार है जिन्होंने फिल्म को विश्वसनीय बनाया। 
 
आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर की जोड़ी बेमेल है, लेकिन उनकी केमिस्ट्री बेहतरीन रही। निखट्टू, निरुरद्देश्य तथा पिता से डरने वाले किरदार को आयुष्मान ने विश्वसनीय बनाया। भूमि पेडनेकर का आत्मविश्वास देखने लायक है और वे अपने किरदार में पूरी तरह डूबी नजर आई। संजय मिश्रा सहित फिल्म के तमाम कलाकारों का काम प्रशंसा के योग्य है। 
 
'दम लगा के हईशा' को देखने के लिए टिकट खरीदा जा सकता है।  
 
बैनर : यशराज फिल्म्स
निर्माता : मनीष शर्मा
निर्देशक : शरत कटारिया
संगीत : अनु मलिक
कलाकार : आयुष्मान खुराना, भूमि पेडनेकर, संजय मिश्रा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 51 मिनट 
रेटिंग : 3/5 

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